भारत में लाखों छोटे-छोटे स्वदेशी उद्योग हैं जो विदेशी कंपनियों से टक्कर ले रहे हैं, हमारा कर्तव्य हैं कि उनका मनोबल बढ़ाये - श्री राजीव दीक्षित जी
स्वदेशी कृषि, प्राकृतिक कृषि, बहुफसली कृषि, सप्तशील कृषि
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खाद परियोजना
कृत्रिम रासायन से गाँव मुक्त करते हुए गाव में ही उपलब्ध संसाधनों के माध्यम से सामूहिक रूप से खाद को तैयार करना है। जो सर्वोत्तम गुणवत्ता वाली मिट्टी की प्राकृतिक बनावट को बढ़ाने के लिये कारगर होगा। इसमें गोबर, गोमूत्र, खेतो में बचा हूवा काडी कचरा और उपजाऊ मिट्टी का उपयोग कर के खाद बनाना होगा। गोमूत्र और गोबर के माध्यम से विभिन्न कीटनाशकों और जंतुनाशक तैयार करना होगा।
अनाज प्रसंस्करण उद्योग
हम मुख्य रूप से अनाज, दाले, तिलहन, सब्जियों, फलों, फुलो और मसालों का उत्पादन करते हैं। लेकिन गन्ने और सोयाबीन के बढ़ते औद्योगिक प्रभाव के कारण, हम इन प्रधान अनाज के मामले में पिछड़ रहे हैं। लेकिन अब हमें गाव में ही प्रसंस्करण उद्योग स्थापित करके इन उत्पादनों का मूल्यवर्धन कर उन्हें बढ़ावा देना चाहीये।
अनाज तृणधान्य
ज्वार, बाजरा, रागी, भगर, कुटकी, कोदो, सामा ऐसे अनाज हैं जो मानव शरीर के लिए अत्यधिक पोषक होते हैं और सभी प्रकार के पोषक तत्व प्रदान करते हैं। ये फसलो की उपज भरपूर मात्रा में होती हैं और कम पानी में उगती हैं। ये सभी अनाज की दुनिया भर में भरपूर मांग हैं और विभिन्न प्रसंस्करण उद्योगों में इसका इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे पशुओं को प्रचुर मात्रा में पौष्टिक चारा भी मिलता है। इस पर आधारित उद्योग बिस्कुट, पापड़, लाही, मुरमुरा, सूजी, पोहा, आटा बनाना आदि हैं।
दालें द्विदल धान्य
हमारे पास उच्च गुणवत्ता वाले दालें हैं जैसे तुर, चना, मूंग, उड़द, मसूर, चवली, मटकी, कुलथ। इनकी बहुत मांग है। उनकी लकड़ी से उत्कृष्ट खाद का उत्पादन किया जा सकता है। बढ़ती बीमारी के कारण, छिलके वाली दालों की भारी मांग है । दाले बनाना, दालों से आटा, चटनी, पापड़, पशु आहार आदि प्रसंस्करण उद्योग किये जा सकता है।
तिलहन
मूंगफली, कुसुम, अलसी, तिल, सरसों, नारियल. भारत हजारों वर्षों से इस संबंध में आत्मनिर्भर रहा है, इससे मनुष्य को स्वास्थ्य मिला और पशुओं को पौष्टिक आहार मिला। इस प्रणाली को औद्योगिक क्रांति ने तोड़ दिया । अतीत में, गांवों में बडे पैमने पर तेल क्षेत्र थे। लेकिन आज हम लाखों लीटर तेल आयात करते हैं। इस प्रणाली को फिर से स्थापित करने के लिए, गांवों में छोटे तेल प्रसंस्करण उद्योग शुरू करने होंगे। उदा. लकडी का तेलघाणा, खल्ली पशूआहार बनाना, केश तैल, मालिशतेल, एवं विभिन्न औषधीय तेल आदि बनाए जा सकते हैं।
सब्जियां
पालक, हरी मिर्च, बैगण, टमाटर, दोडका, गाजर, मूली, चुकंदर, आलू, प्याज, अद्रक, लहसुन, चवलाई, मटकी, अंबाड़ा, चामकुरा, गोबी,भोपळा,खिरा, मटार, मेथी, पुदिना, करिपत्ता, हरा धानिया, करेला, गवार, कद्दू आदि बहोत प्रकार साग सब्जी हमारे देश में उपलब्ध है। इस तरह की विविधता दुनिया में कहीं और नहीं पाई जाती है। दुनिया में इसका बहुत बड़ा बाजार है। अगर इसकी प्राकृतिक टिकाऊ क्षमता बढाई जाय, उचित वितरण प्रणाली बनाई जाय तो किसान को लाभ होगा, रोजराग बढेगा । ताजे सब्जियां बेचना, सूखे सब्जियां, चिप्स, पापड़, सब्जी पाउडर, औषधीय रस, अर्क, आदि प्रसंस्करण उद्योग किये जा सकते हैं।
फल
आम, आमरुद, जामून, नींबू, नारियल, बेर, पपीता, बेल, कवाथ, इमली, केला, सीताफल, चीकू, संतरा, मुसंबी, अंगुर, कुष्माण्ड, करवंद, टरबूज, बदाम, काजू, खजूर, अंजीर, जरदाळू। हम गांवों, खेतों, जंगलों में प्रचुर मात्रा में फलों के पेड़ लगाते थे, वे अब घट रहे हैं। ये फल जो विभिन्न मौसमों में आते हैं यह प्राणिमात्र के लिए एक अमृत तुल्य आहार हैं । सभी के लिए इनकी उपज और संवर्धन होना बहुत जरुरी है। आप इन में प्राकृतिक प्रसंस्करण उद्योग कर सकते हैं जैसे ताजे फल बेचना, सुखाना और पाउडर बनाना, शरबत, सिरप बनाना, अर्क बनाना, अचार बनाना, मिष्ठान्न बनाना आदि।
फूल
कमल, मोगरा, पारिजात, केवडा, जाई, जुई, शेवंती, झंडू, काकडा, चाफा, चंपा, कणेरी, कर्दळी, पालाश, गुलाब, कुमुदिनी, बकुळ, रजनी गंधा, सदाबहार, कृष्णकमल, ब्रम्हकमल, अबोली, मधूमालती, जास्वंद, जास्मिन, कुमुदिनी, अपराजिता, नर्गिस, नागकेशर । हमारे देश को प्रकृती ने भरपूर दिया हैं । यह फुल दिखनेमे सुंदर, औषधी गुण से भरपूर और सुगंधित द्रव्य से उत्साह देने वाले यह फुल है । यह फुल अलग अलग ऋतु ओ में आते है. इसी कारण भारत वर्ष उत्सव और समारंभ से परिपूर्ण राहा है। यहां विविध पंथ, सम्प्रदायों में उत्सव की परंपरा रही है। सभी उत्सव मे ऋतुमे आने वाले फुल अनिवार्य हैं.. । इसलिये इनकी मांग और उपयोगिता बहोत हैं। अभी हम पर जो विदेशी फुल थोपे जा रहे है वह गंधहीन, बेमौसम आनेवाले है..। इंनका हमारे सेहत और उत्साह से कोई लेना देना नही हैं। यह परिस्थिती हमको बदलनी होगी। इसमें, खुशबूदार फूल बेचना, रंग बनाना, अत्तर बनाना, स्नानचुर्न बनाना यह उद्योग कर सकते हैं ।
मसाले
मिर्च, हल्दी, धनिया, सौंफ, हींग, दालचीनी, जीरा, तेज पत्ता, करी पत्ता, सुपारी, मेथीदाना आदि का उपयोग हमारे दैनिक आहार और कुछ बीमारियों में किया जाता है। औषधीय उपयोग के लिए इनकी दुनिया भर में बहुत मांग हैं। प्रसंस्करण उद्योगों को उन स्थानों पर शुरू करना होगा जहां वे सैकड़ों वर्षों से उत्पादित किए जाते हैं। यह लघु प्रसंस्करण उद्योग गुणवत्ता बनाए रखने और रोजगार बढ़ाने में मदद करेंगे।
औषधीय पौधों की उपज और देखभाल
भारत में विविध जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र के कारण जैव विविधता बहुत बड़ी है। यहां विभिन्न स्थानों पर हजारों औषधीय पौधे अपने आप पैदा होते हैं। इसी कारण यहा ऋषी, मुनीयो के द्वारा आयुर्वेद की रचना हुई । उदाहरण के लिए, गीलोय, एलोवेरा, अनंतमुल, गोखरू, जाटामासी, गुगल, अपामर्ग, केना, दुब, अश्वगंधा, शतावर, चंदन, पत्थर चट्टा, सर्पगंधा, कुरुडू, सप्तरंगी, गुंज, मुलेठी, मोह, कुरुम, नागरमोथा, ब्राम्ही, अशोक, रीठा, शिकाकाई, हरड, बेहड,आवला, अर्जुन, बड, पिंपल, औदुंबर, पलास, बिब्बा, शमी, आप्टा, नीम । इन से बनाई जा सकने वाली सभी विभिन्न दवाओं की उपयोगिता को विधिवत सिद्ध करने से भारी मांग होगी। यह अब बड़े पैमाने पर शुरू हो गया है। इस उद्योग से अर्क, घन वटी, आसव, आरीष्ठ, प्राष, पाक, दंतमंजन, मरहम, स्प्रे, साबित तेल, साबुन, शैम्पू, फेस पैक, अगरबत्ती, इत्र, उबटन, धूपबत्ती आदि बनाए जा सकते हैं।
गो संवर्धन और पशुपालन
हजारों वर्षों से भारत गो संवर्धन और पशुपालन के माध्यम से स्वस्थ, सशक्त, समृद्ध और सुसंस्कृत बनता रहा है। गोबर और गोमूत्र से कृषि के लिए पोषक खाद उपलब्ध होता है। उनका दूध, दही, छाछ, मक्खन और घी मानव शरीर का पोषण करते हैं। गो संवर्धन और पशुपालन के बिना कृषि और कृषि आधारित प्रसंस्करण उद्योग सुचारू नहीं हो सकते। बैलों का शारीरिक श्रम भूमि को उपजाऊ बनाता है और परिवहन का कोई आसान और बेहतर साधन इनसे दुसरा नहीं है। यह एक आत्मनिर्भर प्रणाली है। खाद, पेट्रोल, डीजल, ट्रैक्टर का आयात करना आत्मनिर्भरता नही है। फसलो और पेड पौधे पर आने वाले किट के नियंत्रण एवं संतुलन बनाने में पशू और पक्षियों का बहुत बड़ा योगदान है। बैल शक्ति का उपयोग ऊर्जा संसाधनों को बचाता है, जो कम होते जा रहे हैं। इन में कृषी उर्वरक उत्पादन परियोजनाएं, दुग्ध वितरण , चमड़ा उद्योग के लिए मृत पशुओं की खाल की उपलब्धता, गोबर गैस के माध्यम से ऊर्जा आत्मनिर्भरता, आदि उद्योग होते हैं। साथ ही इस से गांवों में बड़े पैमाने पर ऊर्जा उत्पादन परियोजनाएं शुरू करनी होंगी।
चमड़ा उद्योग
हम विभिन्न चमड़े के सामान का उपयोग करते थे, जिसके लिए हम केवल मृत जानवरों की खाल का उपयोग करते थे। उदाहरण के लिए जूते, चप्पल, सीट, बोरे, रस्सी, बैग, बेल्ट, संगीत वाद्ययंत्र आदि सब गाव दरास में बनाए जाते थे। उसके लिए किसी जानवर का वध नहीं किया जाता था। लेकिन औद्योगिक क्रांति ने विशाल कारखाने बनाए। गाँव में चमड़ा उद्योग नष्ट हो गया। बड़ी संख्या में जानवर मारे गए। आज केवल 10% पशुधन बचा है। इसके लिए पशुधन को बढाना होगा और उन्हें बचाने के लिए मृत पशू की खाल से उपयोगी वस्तुये बनाने के लिए छोटे पैमाने पर चर्म उद्योग स्थापित कीये जाने चाहिए। यह समाज की जरूरत है।
मृदा उद्योग
भारत में विभिन्न वातावरणों के कारण विभिन्न प्रकार की मिट्टी उपलब्ध हैं। मिट्टी का उपयोग हम फसल के उत्पादन के साथ-साथ घर के निर्माण और विभिन्न बर्तनों जैसे खाना पकाने और पानी के लिए हजारों वर्षों से मिट्टी के बर्तनों का उपयोग करते रहे हैं। मिट्टी के घर में रहने से पर्यावरण के अनुकूल स्वास्थ्य मिलता है । जब भोजन मिट्टी के बर्तन में पकाया जाता है, तो सभी पोषक तत्व प्राप्त होते हैं। यह स्वास्थ्य के लिए बहुत अच्छा है। एसी, फ्रीजर, कुकर, आरओ के उपयोग से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम हो रही है और बीमारियां बढ़ रही हैं। इस उद्योग में करने के लिए बहुत कुछ है। उदाहरण के लिए, घर बनाने के लिए मिट्टी, पानी के लिए विभिन्न बर्तन, खाना पकाने के लिए बर्तन, मिट्टी के कुकर, मिट्टी के फ्रिज, मिट्टी के तवे और कई अन्य उपयोगी चीजें मिट्टी से बनाई जा सकती हैं।
शक्कर और गुड़ प्रसंस्करण उद्योग
हमारे पास लगभग आठ प्रकार की शक्कर और गुड़ हुआ करते थे। यह शरीर के लिए बहुत उपयोगी है और विभिन्न खाद्य पदार्थों में उपयोग किया जाता है। औद्योगिक क्रांति के बाद कारखाने में केवल गन्ने से बड़ी मात्रा में चीनी का उत्पादन शुरू किया, जिसके कारण गांवों के गुड़ और शक्कर उद्योग बंद हो गए। इस चीनी का उपयोग बड़ी मात्रा में चाय, दवा-दारू और आधुनिक पदार्थ बनाने के किया जाता है। परिणामस्वरूप 35% लोग बीमार हैं। इसके विकल्प के रूप में गाँव में ही शक्कर और गुड़ के प्रसंस्करण उद्योग को शुरू किया जाना चाहिए । गाँव में ही प्राकृतिक गुड़, खांड शक्कर, बूरा शक्कर का उत्पादन किया जाना चाहिए। तभी हमें प्राकृतिक और शुद्ध ऊर्जा मिलेगी।
सूती कपड़े बनाना
प्राचीन काल से पूरे भारत में कपास की खेती की जाती रही है। इससे हमारी कपडो की जरुरत पुरी होती थी. इसकी मांग हमेशा से रही हैं. । हमारे पास अलग-अलग क्वालिटी के कॉटन उपलब्ध थे। पूरी दुनिया में इस तरह का टिकाऊ और स्वस्थ कपड़ों का व्यापार किया जाता था। इस गुण के कारण भारतीय कपड़ा हर जगह मांग में था। अब औद्योगिक क्रांति के कारण सिंथेटिक धागे जो पर्यावरण के अनुकूल नहीं हैं और स्वस्थ नहीं हैं, लेकिन सस्ते होने से हर जगह बेचे जा रहे हैं। इससे बने कपड़े हर जगह बड़ी मात्रा में बेचे जाते हैं। कम मांग के कारण सूती कपड़ों को उचित मूल्य नहीं मिलता है और इससे वैकल्पिक रूप से कपास को कीमत नहीं मिलती है। अब बीटी बीज की उपलब्धता के कारण पुराने कपास के बीज नष्ट हो रहे हैं। इसके लिए हमें अब अपनी सभी पुरानी कपास किस्मों को ढूंढना और पुनर्जीवित करना होगा। ये सूती धागे हाथ चरखा को पूरक हैं, हातमाग अधिक हाथ को काम देता है। इसलिए अगर अब चरखा और हातमाग उद्योग फिर से स्थापित हो तो यह किसानों के कपास को उचित मूल्य प्रदान करेगा और हजारों हाथों को रोजगार प्रदान करेगा। यह सभी को स्वास्थ्य भी देगा, सूती कपड़े गर्मियों में ठंडे और सर्दियों में गर्म होते हैं। इसके अलावा कई उद्योग जैसे जिनिंग, प्रेसिंग, कताई, बुनाई, धुलाई, रंगाई, सिलाई आदी इस पर प्रतिष्ठित होते हैं।
लकड़ी उद्योग
अतीत में हमारे पास बहुत सारे जंगल थे। खेतों में और गाँव में बड़े पेड और फलदार पेड़ थे। इस महान पेड़ पर बड़ी संख्या में पक्षी रहते हैं और ये पक्षी सभी फलों के पेड़ों के बीज प्रत्यारोपण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। बढ़ती आबादी और वाणिज्यिक उद्देश से वनों की कटाई के कारण, पेड और लकडी दोनो खतम हुये हैं। हजारों सालों से हम लकड़ी से विभिन्न जीवन उपयोगी वस्तूये और उपकरण बनाते आये है, ऊसी तरह सुकी टहनियो से ऊर्जा प्राप्त करते आये हैं। विभिन्न ऊर्जा संसाधनों के अनुसंधान और उपयोग के कारण यह प्राकृतिक प्रणाली बाधित हो गई है। समय के साथ हमें इस प्रणाली को फिर से अपनाना होगा, क्योंकि आधुनिक ऊर्जा संसाधन घटते जा रहे हैं। अतीत में हम सभी पेड़ की देखभाल और संरक्षण बहुत करते थे यह जीवन का एक हिस्सा था। तब गाँव में लकड़ी का उद्योग फल-फूल रहा था। घर के निर्माण के लिए लकड़ी उपलब्ध करना, कृषि के लिए उपयोगी उपकरण बनाना, घरेलू उपयोग के लिए उपयोगी वस्तुएं बनाना। इसमें श्रम, बुद्धि और कौशल का उपयोग किया जाता था। गाव में यह पारंपरिक रूप से स्वचालित रूप से पढ़ाया जाता था। घटते ऊर्जा संसाधनों, बढ़ते प्रदूषण, ऑक्सीजन की कमी को ध्यान में रखते हुए, स्वदेशी वृक्षों, फलों के पेड़ों को पुनर्जीवित करने और इस लकड़ी उद्योग को स्थापित करने की आवश्यकता है। तो भूली हुई कला, कौशल्य को फिर से हासिल किया जा सकता है । इसके लिए लकड़ी पर आधारित कला और शिल्प विकसित करने के लिए देशी महावृक्षों और फलों के पेड़ों के वाटिकाओ का निर्माण करना पडेगा। इसके लिए पेड़ लगाने आदि के लिए खाली भूमि को उपयोग में लाना होगा।
विविध कुटीर उद्योग
पूर्व के गाँव, कस्बे और बस्तियाँ आत्मनिर्भर और स्वयं पूर्ण थीं। यानी यह गाँव की आदर्श स्थिति थी। यही हमारे विभिन्न संतों, महापुरुषों और सुधारकों ने कहा है। अगर गाँव में सब कुछ बाहर से आ रहा है, तो इसे आदर्शगाँव कैसे कहा जा सकता है? जिस प्रकार एक दुसरे के आपसी निर्भरता के रहने से पारिवारिक व्यवस्था निर्माण होती हैं और बनि रहती है । उसी प्रकार कृषि, पशुपालन और कृषि आधारित उद्योगों की आपसी निर्भरता के कारण ग्राम परिवार प्रणाली का निर्माण होता हैं। यह ग्रामपरिवार प्रणाली को बने रहने के लिए, पशुपालन से समृद्ध कृषि और कृषि आधारित मजबूत उद्योगों की आवश्यकता है। इस लिये अब जमीन की उपजाऊ शक्ती और पर्यावरण पर आधारित कृषि उपज को संसाधित करने वाले उद्योगों को गाँव क्षेत्र में शुरू किया जाना चाहिए। अन्यथा, कच्चे माल को शहर में मिट्टी की कीमत पर बेचाना होगा और तैयार माल को शहर से चार गुना दाम पर वह भी अधिकतर मिलावटी रूप में लेना होगा। इसलिए हमें शहर पर भरोसा किए बिना गाँव में अच्छी बुद्धि, कौशल, ज्ञान,और शक्ति लगाकर अपनी आत्मनिर्भरता बढ़ानी होगी।