भारत का सच्चा इतिहास

वास्कोडिगामा का सच

आज से लगभग 400 साल पहले, वास्कोडीगामा आया था हिंदुस्तान, इतिहास की चोपड़ी में, इतिहास की किताब में हमसब ने पढ़ा होगा कि सन् 1498 में मई की 20 तारीख को वास्कोडीगामा हिंदुस्तान आया था।
इतिहास की चोपड़ी में हमको ये बताया गया कि वास्कोडीगामा ने हिंदुस्तान की खोज की, पर ऐसा लगता है कि जैसे वास्कोडीगामा ने जब हिंदुस्तान की खोज की, तो शायद उसके पहले हिंदुस्तान था ही नहीं। हज़ारो साल का ये देश है, जो वास्कोडीगामा के बाप दादाओं के पहले से मौजूद है इस दुनिया में, तो इतिहास कि चोपड़ी में ऐसा क्यों कहा जाता है कि वास्कोडीगामा ने हिंदुस्तान की खोज की, भारत की खोज की, और मै मानता हुँ कि वो एकदम गलत है, वास्कोडीगामा ने भारत की कोई खोज नहीं की, हिंदुस्तान की भी कोई खोज नहीं की, हिंदुस्तान पहले से था, भारत पहले से था।
वास्कोडीगामा यहाँ आया था भारतवर्ष को लूटने के लिए, एक बात और जो इतिहास में, मेरे अनुसार बहुत गलत बताई जाती है कि वास्कोडीगामा एक बहुत बहादुर नाविक था, बहादुर सेनापति था, बहादुर सैनिक था, और हिंदुस्तान की खोज के अभियान पर निकला था, ऐसा कुछ नहीं था, सच्चाई ये है कि पुर्तगाल का वो उस ज़माने का डॉन था, माफ़िया था। जैसे आज के ज़माने में हिंदुस्तान में बहुत सारे माफ़िया किंग रहे है, उनका नाम लेने की जरुरत नहीं है, क्योकि मंदिर की पवित्रता ख़त्म हो जाएगी, ऐसे ही बहुत सारे डॉन और माफ़िया किंग 15वी शताब्दी में होते थे यूरोप में और 15 वी शताब्दी का जो यूरोप था। वहां दो देश बहुत ताकतवर थें उस ज़माने में, एक था स्पेन और दूसरा था पुर्तगाल। तो वास्कोडीगामा जो था वो पुर्तगाल का माफ़िया किंग था। सन् 1490 के आस पास से वास्को डी गामा पुर्तगाल में चोरी का काम, लुटेरे का काम, डकैती डालने का काम ये सब किया करता था, और अगर सच्चा इतिहास उसका आप खोजिए तो एक चोर और लुटेरे को हमारे इतिहास में गलत तरीके से हीरो बना कर पेश किया गया
ये वास्कोडीगामा जब कालीकट में आया, 20 मई, 1498 को, तो कालीकट का राजा था उस समय झामोरिन, तो झामोरिन के राज्य में जब ये पहुंचा वास्को डी गामा, तो उसने कहा कि मै तो आपका मेहमान हुँ, और हिंदुस्तान के बारे में उसको कहीं से पता चल गया था कि इस देश में “अतिथि देवो भव” की परंपरा, तो झामोरिन ने बेचारे ने, ये अतिथि है ऐसा मान कर उसका स्वागत किया, वास्को डी गामा ने कहा कि मुझे आपके राज्य में रहने के लिए कुछ जगह चाहिए, आप मुझे रहने की इजाजत दे दो, परमीशन दे दो। झामोरिन बेचारा सीधा सदा आदमी था, उसने कालीकट में वास्को डी गामा को रहने की इजाजत दे दी। जिस वास्को डी गामा को झामोरिन के राजा ने अथिति बनाया, उसका आथित्य ग्रहण किया, उसके यहाँ रहना शुरु किया, उसी झामोरिन की वास्को डी गामा ने हत्या करायी, और हत्या करा के खुद वास्को डी गामा कालीकट का मालिक बना, और कालीकट का मालिक बनने के बाद उसने क्या किया कि समुद्र के किनारे है कालीकट केरल में, वहां से जो जहांज आते जाते थे, जिसमे हिन्दुस्तानी व्यापारी अपना माल भर-भर के साउथ ईस्ट एशिया और अरब के देशो में व्यापार के लिए भेजते थे, उन जहांजो पर टैक्स वसूलने का काम वास्को डी गामा करता था, और अगर कोई जहांज वास्को डी गामा को टैक्स ना दे, तो उस जहांज को समुद्र में डुबोने का काम वास्कोडीगामा करता था, और वास्कोडीगामा हिंदुस्तान में आया पहली बार 1498 में, और यहाँ से जब लूट के सम्पत्ति ले गया, तो 7 जहांज भर के सोने की अशर्फिया थी। पोर्तुगीज सरकार के जो डॉक्यूमेंट है वो बताते है कि वास्कोडीगामा पहली बार जब हिंदुस्तान से गया, लूट कर सम्पत्ति को ले कर के गया, तो 7 जहांज भर के सोने की अशर्फिया, उसके बाद दुबारा फिर आया वास्कोडीगामा । वास्कोडीगामा हिंदुस्तान में 3 बार आया लगातार लूटने के बाद, चौथी बार भी आता लेकिन मर गया, दूसरी बार आया तो हिंदुस्तान से लूट कर जो ले गया वो करीब 11 से 12 जहाज भर के सोने की अशर्फिया थी, और तीसरी बार आया और हिंदुस्तान से जो लूट कर ले गया वो 21 से 22 जहाज भर के सोने की अशर्फिया थी। इतना सोना चांदी लूट कर जब वास्को डी गामा यहाँ से ले गया तो पुर्तगाल के लोगों को पता चला कि हिंदुस्तान में तो बहुत सम्पत्ति है, और भारतवर्ष की सम्पत्ति के बारे में उन्होंने पुर्तगालियों ने पहले भी कहीं पढ़ा था, उनको कहीं से ये टेक्स्ट मिल गया था कि भारत एक ऐसा देश है, जहाँ पर महमूद गजनवी नाम का एक व्यक्ति आया, 17 साल बराबर आता रहा, लूटता रहा इस देश को, एक ही मंदिर को, सोमनाथ का मंदिर जो वेरावल में है,


प्लासी के युद्ध की सच्चाई

किसी को नहीं मालूम था कि जिस ईस्ट इंडिया कम्पनी को हम व्यापार के लिए छुट दे रहे है, जिन अंग्रेजो को हम व्यापार के लिए जमीन दे रहे है, जिन अंग्रेजो को व्यापार के लिए हिंदुस्तान में हम बुला के ला रहे है, वही अंग्रेज इस देश के मालिक हो जाएँगे, ऐसा किसी को अंदाजा नहीं था, अगर ये अंदाजा होता तो शायद कभी उनको छुट न मिलती, लेकिन 1750 में ये अंदाजा हुआ, और अंदाजा हुआ 1 व्यक्ति को, उसका नाम था सिराजुद्दोला, बंगाल का नवाब था, तो बंगाल का नवाब था सिराजुद्दोला, उसको ये अंदाजा हो गया कि अंग्रेज इस देश में व्यापार करने नहीं आए है, इस देश को गुलाम बनाने आए है, इस देश को लूटने के लिए आए है। क्योकि इस देश में सम्पत्ति बहुत है, क्योकि इस देश में पैसा बहुत है, तो सिराजुद्दोला ने फैसला किया कि अंग्रेजो के खिलाफ कोई बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ेगी, और उस बड़ी को लड़ाई लड़ने के लिए सिराजुद्दोला ने युद्ध किया अंग्रेजो के खिलाफ, इतिहास की चोपड़ी में आपने पढ़ा होगा कि प्लासी का युद्ध हुआ, 1757 मे , लेकिन इस युद्ध की एक ख़ास बात है जो मै आपको याद दिलाना चाहता हुँ, आज के समय में भी वो बहुत महत्वपूर्ण है। मैं बचपन में जब विद्यार्थी था कक्षा 9 में पढता था, तो मै मेरे इतिहास के अध्यापक से ये पूछता था कि सर मुझे ये बताइए कि प्लासी के युद्ध में अंग्रेजो की तरफ से कितने सिपाही थें लड़ने वाले, तो मेरे अध्यापक कहते थे कि मुझको नहीं मालूम, तो मै कहता था क्यों नहीं मालूम, तो कहते थे कि मुझे किसी ने नहीं पढाया तो मै तुमको कहाँ से पढ़ा दूँ, तो मैं उनको बराबर एक ही सवाल पूछता था कि सर आप जरा ये बताइये कि बिना सिपाही के कोई युद्ध हो सकता है कि नहीं तो फिर हमको ये क्यों नहीं पढाया जाता है कि युद्ध में कितने सिपाही अंग्रेजो के पास और उसके दूसरी तरफ एक और सवाल मै पूछता था कि अच्छा ये बताइये कि अंग्रेजो के पास कितने सिपाही थे ये तो हमको नहीं मालुम सिराजुद्दोला जो लड़ रहा था हिंदुस्तान की तरफ से उनके पास कितने सिपाही थे? तो कहते थे कि वो भी नहीं मालूम। प्लासी के युद्ध के बारे में इस देश में इतिहास की 150 किताबे है जो मैंने देखी है, उन 150 मै से एक भी किताब में ये जानकारी नहीं दी गई है कि अंग्रेजो की तरफ से कितने सिपाही लड़ने वाले थे और हिंदुस्तान की तरफ से कितने सिपाही लड़ने वाले थे और मै आपको सच बताऊ मै मेरे बचपन से इस सवाल से बहुत परेशान रहा और इस सवाल का जवाब अभी 3 साल पहले मुझे मिला,वो भी हिंदुस्तान में नहीं मिला लन्दन में मिला।
लन्दन में एक इंडिया हाउस लाइब्रेरी है बहूत बड़ी लाइब्रेरी है, उस इंडिया हाउस लाइब्रेरी में हिंदुस्तान के गुलामी के 20000 से भी ज्यादा दस्तावेज़ रखे हुआ है, जो हमारे देश में नहीं है वहां रखे हुए है, भारतवर्ष को अंग्रेजो ने कैसे तोड़ा कैसे गुलाम बनाया इसकी पूरी विस्तृत जानकारी उन 20000 दस्तावेजो में इंडिया हाउस लाइब्रेरी में मौजूद है। मेरे एक परिचित है प्रोफेसर धर्मपाल, वो 40 वर्ष तक यूरोप में रहे है, मैंने एक बार उनको एक चिट्ठी लिखी, मैंने कहा सर, मै ये जानना चाहता हुँ बेसिक प्रश्न कि प्लासी के युद्ध में अंग्रेजो के पास कितने सिपाही थे? तो उन्होंने कहा देखो राजीव, अगर तुमको ये जानना है तो बहुत कुछ जानना पड़ेगा, और तुम तैयार हो जानने के लिए, तो मैंने कहा मै सब जानना चाहता हुँ। मै इतिहास का विद्यार्थी नहीं लगा लेकिन इतिहास को समझना चाहता हुँ कि ऐसी कौन सी ख़ास बात थी जो हम अंग्रेजो के गुलाम हो गए, ये समझ में तो आना चाहिए अपने को, कि कैसे हम अंग्रेजो के गुलाम हो गए, ये इतना बड़ा देश, 34 करोड़ की आबादी वाला देश 50 हजार अंग्रेजो का गुलाम कैसे हो गया ये समझना चाहिए, तो वो प्लासी के युद्ध पर से वो समझ में आया। उन्होंने कुछ दस्तावेज़ मुझे भेजें, फोटोकॉपी करा के और मेरे पास अभी भी है। उन दस्तावेजो को जब मै पढता था तो मुझे पता चला कि प्लासी के युद्ध में अंग्रेजो के पास मात्र 300 सिपाही थे, 300 और सिराजुद्दोला के पास 18000 सिपाही थे। अब किसी भी सामने के विद्यार्थी से, बच्चे से, या सामान्य बुद्धि के आदमी से आप ये पूछो के एक बाजू में 300 सिपाही, और दूसरे बाजू में 18000 सिपाही, कौन जीतेगा? 18000 सिपाही जिनके पास है वो जीतेगा।

लेकिन जीता कौन ? जिनके पास मात्र 300 सिपाही थे वो जीत गए, और जिनके पास 18000 सिपाही थे वो हार गए और हिंदुस्तान के, भारतवर्ष के एक एक सिपाही के बारे में अंग्रेजो के पार्लियामेंट में ये कहा जाता था कि भारतवर्ष का 1 सिपाही अंग्रेजो के 5 सिपाही को मारने के लिए काफी है, इतना ताकतवर, तो इतने ताकतवर 18000 सिपाही अंग्रेजो के कमजोर 300 सिपाहियो से कैसे हारे ये बिलकुल गम्भीरता से समझने की जरुरत है, और उन दस्तावेजो को देखने के बाद मुझे पता चला कि हम कैसे हारे? अंग्रेजो की तरफ से जो लड़ने आया था उसका नाम था रोबर्ट क्लाइव, वो अंग्रेजी सेना का सेनापति था और भारतवर्ष की तरफ से जो लड़ रहा था सिराजुद्दोला, उसका भी एक सेनापति था, उसका नाम था मीर जाफ़र, तो हुआ क्या था रोबर्ट क्लाइव ये जनता था कि अगर भारतीय सिपाहियों से सामने से हम लड़ेंगे तो हम 300 लोग है मारे जाएँगे, 2 घंटे भी युद्ध नहीं चलेगा और क्लाइव ने इस बात को कई बार ब्रिटिश पार्लियामेंट को चिट्ठी लिख के कहा था। क्लाइव की 2 चिट्ठियाँ है उन दस्तावेजो में, एक चिट्ठी में क्लाइव ने लिखा कि हम सिर्फ 300 सिपाही है, और सिराजुद्दोला के पास 18000 सिपाही है। हम युद्ध जीत नहीं सकते है, अगर ब्रिटिश पार्लियामेंट अंग्रेजी पार्लियामेंट ये चाहती है कि हम प्लासी का युद्ध जीते, तो जरुरी है कि हमारे पास और सिपाही भेजे जाए।
उस चिट्ठी के जवाब में क्लाइव को ब्रिटिश पार्लियामेंट की एक चिट्ठी मिली थी और वो बहुत मजेदार है उसको समझना चाहिए। उस चिट्ठी में ब्रिटिश पार्लियामेंट के लोगों ने ये लिखा कि हमारे पास इससे ज्यादा सिपाही है नहीं, क्यों नहीं है ? क्योकि 1757 में जब प्लासी का युद्ध शुरु होने वाला था उसी समय अंग्रेजी सिपाही फ़्रांस में नेपोलियन बोनापार्ट के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे और नेपोलियन बोनापार्ट क्या था अंग्रेजो को मार मार के फ़्रांस से भगा रहा था, तो पूरी की पूरी अंग्रेजी ताकत और सेना नेपोलियन बोनापार्ट के खिलाफ फ़्रांस में लडती थी इसी लिए वो ज्यादा सिपाही दे नहीं सकते थे, तो उन्होंने कहा अपने पार्लियामेंट में कि हम इससे ज्यादा सिपाही आपको दे नहीं सकते है, जो 300 सिपाही है उन्हीं से आपको प्लासी का युद्ध जीतना होगा, तो रोबर्ट क्लाइव ने अपने दो जासूस लगाए, उसने कहा देखो युद्ध लड़ेंगे तो मारे जाएँगे, अब आप एक काम करो, उसने दो अपने साथियों को कहा कि आप जाओ और सिराजुद्दोला की आर्मी में पता लगाओ कि कोई ऐसा आदमी है क्या जिसको रिश्वत दे दें, जिसको लालच दे दें और रिश्वत के लालच में जो अपने देश से गद्दारी करने को तैयार हो जाए, ऐसा आदमी तलाश करो। उसके दो जासूसों ने बराबर सिराजुद्दोला की आर्मी में पता लगाया कि हां एक आदमी है, उसका नाम है मीर जाफर, अगर आप उसको रिश्वत दे दो, तो वो हिंदुस्तान को बेंच डालेगा। इतना लालची आदमी है और अगर आप उसको कुर्सी का लालच दे दो, तब तो वो हिंदुस्तान की 7 पुश्तो को बेंच देगा और मीर जाफर क्या था, मीर जाफर ऐसा आदमी था जो रात दिन एक ही सपना देखता था कि एक न एक दिन मुझे बंगाल का नवाब बनना है और उस ज़माने में बंगाल का नवाब बनना ऐसा ही होता था जैसे आज के ज़माने में बहुत नेता ये सपना देखते है कि मुझे हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री बनना है, चाहे देश बेंचना पड़े, तो मीर जाफर के मन का ये जो लालच था कि मुझे बंगाल का नवाब बनना है, माने कुर्सी चाहिए, और मुझे पूंजी चाहिए, पैसा चाहिए, सत्ता चाहिए और पैसा चाहिए। ये दोनो लालच उस समय मीर जाफर के मन में सबसे ज्यादा प्रबल थे, तो उस लालच को रोबर्ट क्लाइव ने बराबर भांप लिया।
तो रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफर को चिट्ठी लिखी है, वो चिट्ठी दस्तावेजो में मौजूद है और उसकी फोटोकोपी मेरे पास है, उसने चिट्ठी में दो ही बातें लिखी है, देखो मीर जाफर अगर तुम अंग्रेजो के साथ दोस्ती करोगे, और ईस्ट इंडिया कंपनी के साथ समझौता करोगे, तो हम तुमको युद्ध जीतने के बाद बंगाल का नवाब बनाएँगे और दूसरी बात कि जब आप बंगाल के नवाब हो जाओगे तो सारी की सारी सम्पत्ति आपकी हो जाएगी। इस सम्पत्ति में से 5 टका हमको दे देना, बाकि तुम जितना लूटना चाहो लूट लो। मीर जाफर चूँकि रात दिन ये ही सपना देखता था कि किसी तरह कुर्सी मिल जाए, और किसी तरह पैसा मिल जाए, तुरंत उसने वापस रोबर्ट क्लाइव को चिट्ठी लिखी और उसने कहा कि मुझे आपकी दोनों बातें मंजूर है, बताइए करना क्या है ? तो आखरी चिट्ठी लिखी है रोबर्ट क्लाइव ने मीर जाफर को कि आपको सिर्फ इतना करना है कि युद्ध जिस दिन शुरु होगा, उस दिन आप अपने 18000 सिपाहियो को कहिए की वो मेरे सामने सरेंडर कर दें बिना लड़े।
मीर जाफर ने कहा कि आप अपनी बात पे कायम रहोगे ? मुझे नवाब बनाना है आपको, तो रोबर्ट ने कहा कि बराबर हम अपनी बात पे कायम है, आपको हम बंगाल का नवाब बना देंगे, बस आप एक ही काम करो कि अपनी आर्मी से कहो, क्योकि वो सेनापति था आर्मी का, तो आप अपनी आर्मी को आदेश दो कि युद्ध के मैदान में वो मेरे सामने हथियार डाल दे, बिना लड़े, मीर जाफर ने कहा कि ऐसा ही होगा और युद्ध शुरु हुआ 23 जून 1757 को। इतिहास की जानकारी के अनुसार २३ जून 1757 को युद्ध शुरु होने के 40 मिनट के अंदर भारतवर्ष के 18000 सिपाहियो ने मीर जाफर के कहने पर अंग्रेजो के 300 सिपाहियो के सामने सरेंडर कर दिया।
रोबर्ट क्लाइव ने क्या किया कि अपने 300 सिपाहियो की मदद से हिंदुस्तान के 18000 सिपाहियो को बंदी बनाया, और कलकत्ता में एक जगह है उसका नाम है फोर्ट विलियम, आज भी है, कभी आप जाइए, उसको देखिए उस फोर्ट विलियम में 18000 सिपाहियो को बंदी बना कर ले गया। 10 दिन तक उसने भारतीय सिपाहियो को भूखा रखा और उसके बाद ग्यारहवे दिन सबकी हत्या कराई और उस हत्या कराने में मीर जाफ़र रोबर्ट क्लाइव के साथ शामिल था, उसके बाद रोबर्ट क्लाइव ने क्या किया, उसने बंगाल के नवाब सिराजुद्दोला की हत्या कराई मुर्शिदाबाद में, क्योकि उस जमाने में बंगाल की राजधानी मुर्शिदाबाद होती थी, कलकत्ता नही। सिराजुद्दोला की हत्या कराने में रोबर्ट क्लाइव और मीर जाफ़र दोनों शामिल थे। और नतीजा क्या हुआ? बंगाल का नवाब सिराजुद्दोला मारा गया, ईस्ट इंडिया कंपनी को भागने का सपना देखता था इस देश में वो मारा गया, और जो ईस्ट इंडिया कंपनी से दोस्ती करने की बात करता था वो बंगाल का नवाब हो गया, मीर जाफ़र।


भारत के काले कानून

भारत में 1857 के पहले ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन हुआ करता था वो अंग्रेजी सरकार का सीधा शासन नहीं था । 1857 में एक क्रांति हुई जिसमे इस देश में मौजूद 99 % अंग्रेजों को भारत के लोगों ने चुन चुन के मार डाला था और 1% इसलिए बच गए क्योंकि उन्होंने अपने को बचाने के लिए अपने शरीर को काला रंग लिया था । लोग इतने गुस्से में थे कि उन्हें जहाँ अंग्रेजों के होने की भनक लगती थी तो वहां पहुँच के वो उन्हें काट डालते थे । हमारे देश के इतिहास की किताबों में उस क्रांति को सिपाही विद्रोह के नाम से पढाया जाता है । Mutiny और Revolution में अंतर होता है लेकिन इस क्रांति को विद्रोह के नाम से ही पढाया गया हमारे इतिहास में । 1857 की गर्मी में मेरठ से शुरू हुई ये क्रांति जिसे सैनिकों ने शुरू किया था, लेकिन एक आम आदमी का आन्दोलन बन गया और इसकी आग पूरे देश में फैली और 1 सितम्बर तक पूरा देश अंग्रेजों के चंगुल से आजाद हो गया था । भारत अंग्रेजों और अंग्रेजी अत्याचार से पूरी तरह मुक्त हो गया था । लेकिन नवम्बर 1857 में इस देश के कुछ गद्दार रजवाड़ों ने अंग्रेजों को वापस बुलाया और उन्हें इस देश में पुनर्स्थापित करने में हर तरह से योगदान दिया । धन बल, सैनिक बल, खुफिया जानकारी, जो भी सुविधा हो सकती थी उन्होंने दिया और उन्हें इस देश में पुनर्स्थापित किया । और आप इस देश का दुर्भाग्य देखिये कि वो रजवाड़े आज भी भारत की राजनीति में सक्रिय हैं । अंग्रेज जब वापस आये तो उन्होंने क्रांति के उद्गम स्थल बिठुर (जो कानपुर के नजदीक है) पहुँच कर सभी 24000 लोगों का मार दिया चाहे वो नवजात हो या मरणासन्न । बिठुर के ही नाना जी पेशवा थे और इस क्रांति की सारी योजना यहीं बनी थी इसलिए अंग्रेजों ने ये बदला लिया था । उसके बाद उन्होंने अपनी सत्ता को भारत में पुनर्स्थापित किया और जैसे एक सरकार के लिए जरूरी होता है वैसे ही उन्होंने कानून बनाना शुरू किया । अंग्रेजों ने कानून तो 1840 से ही बनाना शुरू किया था और मोटे तौर पर उन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था को ध्वस्त कर दिया था, लेकिन 1857 से उन्होंने भारत के लिए ऐसे-ऐसे कानून बनाये जो एक सरकार के शासन करने के लिए जरूरी होता है । आप देखेंगे कि हमारे यहाँ जितने कानून हैं वो सब के सब 1857 से लेकर 1946 तक के हैं ।
Licensing of Arms Act
Indian Education Act - 1858 में Indian Education Act
Indian Police Act
Indian Police Act
Indian Income Tax Act
Indian Forest Act
Indian Forest Act
Land Acquisition Act
Indian Citizenship Act
Indian Advocates Act
Indian Motor Vehicle Act
Indian Agricultural Price Commission Act
Indian Patent Act
Indian Evidence Act


अगर ये राजा ना होते तो देश फिर से गुलाम न होता

सन 1857 में अंग्रेजो के खिलाफ देश में बहुत बड़ी क्रांति हुई थी। उस क्रांति में पुरे भारत में 3 लाख 65 हजार अंग्रेज मारे गए थे। कुछ 2-4 अंग्रेज जिन्दा बच गए फिर वो भागकर किसी तरह London पहुच गए। और उन्होंने भागने के लिये पहले अपने पुरे शरीर को काला किया ताकि वो भारतवासी लगे। उन्होंने अंग्रेजो की संसद में सारी कहानी सुनाई कि भारत में तो विद्रोह हो गया है बगावत हो गयी है। इसके बाद अंग्रेजो की संसद में एक प्रशन आया कि आगे कभी की ऐसा कोई विद्रोह ना हो, इसके लिये क्या क्या करना चाहिए। तो कई लोगो ने अपने प्रेसिडेंट से कहा कि दुबारा से ऐसा ना हो इसके लिये क्या करना चाहिए। तो वहा के प्रेसिडेंट ने कहा कि तुम चिंता ना करो हमारे भारत के कई मित्र है उनकी मदद से हम फिर भारत में जायेंगे। अब आप ये सोच रहे होंगे कि उनके मित्र और दोस्त कौन??? हमारे लिये जो गद्दार वो अंग्रेजो के लिये मित्र और दोस्त। क्या आपको पता है इस देश में कई परिवारों को अंग्रेजो ने रायबहादुर, सर, नाईट हुड की पदवी दे रखी थी। और ये पदवी लेने वाले सब परिवार गद्दार निकले और इन्होने अंग्रेजो की खूब मदद की।
सबसे बड़ा परिवार जिसने 1857 के विद्रोह के बाद जिसने अंग्रेजो की मदद की वो है पटियाला का परिवार जो आज भी जिन्दा है और उसी परिवार का एक व्यक्ति मुख्यमंत्री बनता रहता है पंजाब में। पटियाला के नवाब खानदान ने 1857 की क्रांति के बाद क्रांतिकारियों की मदद नहीं की बल्कि अंग्रजो की मदद की। और उन्होंने अंग्रेजो को एक पत्र लिखा जिसकी कॉपी राजीव दीक्षित जी के पास थी, जो समय आने पर वो पुरे देश को दिखाने वाले थे। उस पत्र में वो नवाब लिखता है कि “आप आईये और भारत को दुबारा गुलाम बनाइये मै आपको 20 हजार सैनिक दूंगा और 20 करोड़ स्वर्ण मुद्राए दूंगा, आप फिर भारत में आकर अपना राज्य स्थापित करिए”। तो पटियाला के नवाब के कहने पर अंग्रेज आ गए।
इसी तरह हरियाणा के जींद का एक नवाब था इसने अंग्रेजो की मदद की। फिर ग्वालियर का ये जो सिंधिया खानदान है इसने अंग्रेजो की बहुत मदद की। ऐसे ही हैदराबाद का एक सलारजन खानदान है जिसको हैदराबाद का निजाम भी कहते थे। ऐसे कुल मिलकर 10-12 परिवार थे जिन्होंने अंग्रेजो को स्वर्ण मुद्राए दी और भारत के क्रांतिकारियों से लड़ने के लिये सैनिक भी दिए। तो इन सब राजाओ की मदद से अंग्रेजो ने फिर से इस देश में परिवेश किया और क्रांतिकारियों की कत्लेआम शुरू कर दिया पुरे देश में।


भारत ने ही पूरी दुनिया को प्लास्टिक सर्जरी करनी सिखाई

प्लास्टिक सर्जरी (Plastic Surgery) जो आज की सर्जरी की दुनिया मे आधुनिकतम विद्या है इसका अविष्कार भारत में हुआ था । सर्जरी का अविष्कार तो हुआ ही है प्लास्टिक सर्जरी का अविष्कार भी यहाँ ही हुआ है। प्लास्टिक सर्जरी मे कहीं की त्वचा को काट के कहीं लगा देना और उसको इस तरह से लगा देना की पता हि न चले, यह विद्या सबसे पहले दुनिया को भारत ने दी है।
1780 मे दक्षिण भारत के कर्णाटक राज्य के एक बड़े भू भाग का राजा था जिसका नाम हयदर अली था । 1780-84 के बीच मे अंग्रेजों ने हयदर अली के ऊपर कई बार हमले किये और एक हमले का जिक्र एक अंग्रेज की डायरी मे से मिला है। एक अंग्रेज का नाम था कोर्नेल कूट उसने हयदर अली पर हमला किया पर युद्ध मे अंग्रेज परास्त हो गए और हयदर अली ने कोर्नेल कूट की नाक काट दी
कोर्नेल कूट अपनी डायरी मे लिखता है के “मैं पराजित हो गया, सैनिको ने मुझे बन्दी बना लिया, फिर मुझे हयदर अली के पास ले गए और उन्होंने मेरा नाक काट दिया।” फिर कोर्नेल कूट लिखता है के “मुझे घोडा दे दिया भागने के लिए नाक काट के हाथ मे दे दिया और कहा के भाग जाओ तो मैं घोड़े पे बैठ के भागा। भागते भागते मैं बेलगाँव मे आ गया, बेलगाँव मे एक वैद्या ने मुझे देखा और पूछा मेरी नाक कहाँ कट गयी? तो मैं झूट बोला के किसी ने पत्थर मार दिया, तो वैद्य ने बोला के यह पत्थर मारी हुई नाक नही है यह तलवार से काटी हुई नाक है, मैं वैद्य हूँ मैं जानता हूँ। तो मैंने वैद्य से सच बोला के मेरी नाक काटी गयी है। वैद्य ने पूछा किसने काटी? मैंने बोला तुम्हारी राजा ने काटी। वैद्य ने पूछा क्यों काटी तो मैंने बोला के उनपर हमला किया इसलिए काटी।फिर वैद्य बोला के तुम यह काटी हुई नाक लेके क्या करोगे? इंग्लैंड जाओगे? तो मैंने बोला इच्छा तो नही है फिर भी जाना हि पड़ेगा।”
यह सब सुनके वो दयालु वैद्य कहता है के मैं तुम्हारी नाक जोड़ सकता हूँ, कोर्नेल कूट को पहले विस्वास नही हुआ, फिर बोला ठेक है जोड़ दो तो वैद्य बोला तुम मेरे घर चलो। फिर वैद्य ने कोर्नेल को ले गया और उसका ऑपरेशन किया और इस ऑपरेशन का तिस पन्ने मे वर्णन है। ऑपरेशन सफलता पूर्वक संपन्न हो गया नाक उसकी जुड़ गयी, वैद्य जी ने उसको एक लेप दे दिया बनाके और कहा की यह लेप ले जाओ और रोज सुबह शाम लगाते रहना। वो लेप लेके चला गया और 15-17 दिन के बाद बिलकुल नाक उसकी जुड़ गयी और वो जहाज मे बैठ कर लन्दन चला गया।
फिर तिन महीने बाद ब्रिटिश पार्लियामेन्ट मे खड़ा हो कोर्नेल कूट भाषण दे रहा है और सबसे पहला सवाल पूछता है सबसे के आपको लगता है के मेरी नाक कटी हुई है? तो सब अंग्रेज हैरान होक कहते है अरे नही नही तुम्हारी नाक तो कटी हुई बिलकुल नही दिखती। फिर वो कहानी सुना रहा है ब्रिटिश पार्लियामेन्ट मे के मैंने हयदर अली पे हमला किया था मैं उसमे हार गया उसने मेरी नाक काटी फिर भारत के एक वैद्य ने मेरी नाक जोड़ी और भारत की वैद्यों के पास इतनी बड़ी हुनर है इतना बड़ा ज्ञान है की वो काटी हुई नाक को जोड़ सकते है।
फिर उस वैद्य जी की खोंज खबर ब्रिटिश पार्लियामेन्ट मे ली गयी, फिर अंग्रेजो का एक दल आया और बेलगाँव की उस वैद्य को मिला, तो उस वैद्य ने अंग्रेजो को बताया के यह काम तो भारत के लगभग हर गाँव मे होता है; मैं एकला नहीं हूँ ऐसा करने वाले हजारो लाखों लोग है। तो अंग्रेजों को हैरानी हुई के कोन सिखाता है आपको ? तो वैद्य जी कहने लगे के हमारे इसके गुरुकुल चलते है और गुरुकुलों मे सिखाया जाता है
फिर अंग्रेजो ने उस गुरुकुलों मे गए उहाँ उन्होंने एडमिशन लिया, विद्यार्थी के रूप मे भारती हुए और सिखा, फिर सिखने के बाद इंग्लॅण्ड मे जाके उन्होंने प्लास्टिक सर्जरी शुरू की। और जिन जिन अंग्रेजों ने भारत से प्लास्टिक सर्जरी सीखी है उनकी डायरियां हैं। एक अंग्रेज अपने डायरी मे लिखता है के ‘जब मैंने पहली बार प्लास्टिक सर्जरी सीखी, जिस गुरु से सीखी वो भारत का विशेष आदमी था और वो नाइ था जाती का। मने जाती का नाइ, जाती का चर्मकार या कोई और हमारे यहाँ ज्ञान और हुनर के बड़े पंडित थे। नाइ है, चर्मकार है इस आधार पर किसी गुरुकुल मे उनका प्रवेश वर्जित नही था, जाती के आधार पर हमारे गुरुकुलों मे प्रवेश नही हुआ है, और जाती के आधार पर हमारे यहाँ शिक्षा की भी व्यवस्था नही था। वर्ण व्यवस्था के आधार पर हमारे यहाँ सबकुछ चलता रहा। तो नाइ भी सर्जन है चर्मकार भी सर्जन है। और वो अंग्रेज लिखता है के चर्मकार जादा अच्छा सर्जन इसलिए हो सकता है की उसको चमड़ा सिलना सबसे अच्छे तरीके से आता है।
एक अंग्रेज लिख रहा है के ‘मैंने जिस गुरु से सर्जरी सीखी वो जात का नाइ था और सिखाने के बाद उन्होंने मुझसे एक ऑपरेशन करवाया और उस ऑपरेशन की वर्णन है। 1792 की बात है एक मराठा सैनिक की दोनों हात युद्ध मे कट गए है और वो उस वैद्य गुरु के पास कटे हुए हात लेके आया है जोड़ने के लिए। तो गुरु ने वो ऑपरेशन उस अंग्रेज से करवाया जो सिख रहा था, और वो ऑपरेशन उस अंग्रेज ने गुरु के साथ मिलके बहुत सफलता के साथ पूरा किया। और वो अंग्रेज जिसका नाम डॉ थॉमस क्रूसो था अपनी डायरी मे कह रहा है के “मैंने मेरे जीवन मे इतना बड़ा ज्ञान किसी गुरु से सिखा और इस गुरु ने मुझसे एक पैसा नही लिया यह मैं बिलकुल अचम्भा मानता हूँ आश्चर्य मानता हूँ” और थॉमस क्रूसो यह सिख के गया है और फिर उसने प्लास्टिक सेर्जेरी का स्कूल खोला, और उस स्कूल मे फिर अंग्रेज सीखे है, और दुनिया मे फैलाया है। दुर्भाग्य इस बात का है के सारी दुनिया मे प्लास्टिक सेर्जेरी का उस स्कूल का तो वर्णन है लेकिन इन वैद्यो का वर्णन अभी तक नही आया विश्व ग्रन्थ मे जिन्होंने अंग्रेजो को प्लास्टिक सर्जरी सिखाई थी।


भारत में सबसे पहले कैसे हुई थी कागज की खोज

कागज बनाना पूरी दुनिया को भारत ने सिखाया । कागज बनाना सबसे पहले भारत मे शुरू हुआ । हमारे भारत मे एक घास होती है उसको सन कहते है और एक घास होती है उसको मुंज कहती है । मुंज घास बहुत तीखी होती है ऊँगली को काट सकती है और खून निकाल सकती है । सन वाली घास थोड़ी नरम होती है ऊँगली को काटती नही है । भारत के हर गाँव मे फ़ोकट मे ये घास होती है । पूर्वी भारत और मध्य भारत मे हर गाँव मे होती है, बंगाल मे, बिहार मे, झाड़खंड मे, ओड़िसा मे, असम मे कोई गाँव नही जहाँ सन न हो और मुंज न हो । तो जिन इलाके मे सन और मुंज सबसे जादा होती रही है इसी इलाके मे सबसे पहले कागज बनना शुरू हुआ । वो सन की घास से और मुंज की घास से हमने सबसे पहले कागज बनाया । सबसे पहले कागज बनाके हमने दुनिया को दिया । और वो कागज बनाने की तकनीक आज से २००० साल पुराणी है । चीन के दस्ताबेजों से ये बात पता चली है । चिनिओं के दस्ताबेजों मे ये लिखा हुआ है के उन्होंने जो कागज बनाना सिखा वो भारत से सिखा, सन और मुंज की रस्सी से ।
कागज बनाने की भारतीय विधि : कागज निर्माता सन के पौधों से बने पुराने रस्से, कपडे़ और जाल खरीदते हैं। उन्हें टुकडों में काटकर फिर पानी में कुछ दिनों के लिए डुबोते हैं। आमतौर पर पानी में डुबोने का काम पांच दिनों तक किया जाता है। उसके बाद इन चीजों को एक टोकरी में नदी में धोया जाता है और उन्हें जमीन में लगे पानी के एक बर्तन में डाला जाता है। इस पानी में सेड़गी मिट्टी का घोल छह हिस्सा और खरितचूना सात हिस्सा होता है।
इन चीजों को उस हाल में आठ या दस दिनों तक रखने के बाद उन्हें फिर गिले अवस्था में ही इसे पीट-पीट कर इसके रेशे अलग कर दिए जाते है। चित्रा संख्या एक उसके बाद इसे साफ छत पर धूप में सुखाया जाता है, फिर उसे पहले की तरह ताजे पानी में डुबोया जाता है। यह प्रक्रिया तीन बार हो जाने के बाद सन मोटा भूरा कागज बनाने के लिए तैयार हो जाता है इस तरह की सात या आठ धुलाई के बाद वह ठीक-ठाक सफेदी वाला कागज बनाने लायक हो जाता है।
सेड़गी मिट्टी एक ऐसी मिट्टी है जिसमें जीवाश्म के क्षारीय गुण होते हैं। । यह इस देश में बड़ी मात्रा में पाया जाता है और इसका प्रयोग व्यापक रुप से घोने, ब्लीच करने , साबुन बनाने और तमाम तरह के अन्य कामों के लिए होता है
इस तरह तैयार किए गए भुरकुस को हौज के पानी में भिगोया जाता है। हौज के एक तरफ संचालक बैठता है और डंडियां निकाल कर सन की परत को एक फ्रेम पर फैला देता है। इस फे्रम को वह कुंड में तब तक धोता है जब तक वह भुरकुस के तिरते कपड़ों से दूधिया सफेद न हो जाए। अब वह फ्रेम और स्क्रीन को पानी में लंबवत डुबोता है और क्षैतिज अवस्था में ऊपर लाता है। वहां वह फ्रेम को अगल-बगल फिर आगे-पीछे उलटता-पलटता है ताकि वे कण परदे पर बराबर से फैल जाएं। फिर वह उसे पानी से ऊपर उठा कर डंडियों पर एक मिनिट के लिए रख देता है।
पानी में इसी तरह फिर डुबोए जाने के बाद कागज का नया पेज तैयार हो जाता है। अब वह विस्तारक — को स्क्रीन से हटाकर स्क्रीन और शीट के ऊपरी हिस्से को एक इंच भीतर की तरफ मोड़ लेता है। इसका मतलब यह है कि शीट का इतना हिस्सा स्क्रीन से अलग कर दिया जाएगा। अब स्क्रीन को पलट दिया जाता है कागज का जो हिस्सा पहले से अलग हो चुका होता है उसे चटाई पर बिछा दिया जाता है । स्क्रीन को आराम से कागज से हटा लिया जाता है। इस तरह कागज बनाने वाला एक के बाद एक शीट निकालता रहता है।
वह दिन भर मं 250 शीट बनाता है, उन्हें एक के ऊपर एक करके रखने के बाद सन के मोटे कपडे़ कागज के आकार के बराबर होता है। इनके ऊपर वह लकड़ी का मोटा पटरा रख देता है जो आकार में कागजों से बड़ा होता है। यह पटरा अपने दबाव से कागज की गीली शीटों से पानी निकाल देता है। इस प्रक्रिया को तेज करने के लिए कागज बनाने वाला खुद उस पर बैठ जाता है। इस गट्ठर को रात भर के लिए एक तरफ रख दिया जाता है। सुबह इनमें से एक-एक शीट निकाली जाती है उन्हें ब्रश से बराबर किया जाता है । कागज की इन शीटों को घर की प्लास्टर लगी दीवारों पर चिपका दिया जाता है।
सूख जाने के बाद उन्हें छुड़ा लिया जाता है और एक साफ चटाई या कपडे़ पर बिछा दिया जाता है। इनको चावल के पानी में डूबे कंबल से रगड़ा जाता है और तुरंत बाद घर में इस उद्देश्य के लिए बनी रस्सी पर सुखाने के लिए लटका दिया जाता है। जब यह पूरी तरह से सूख जाए तो उसे चैकोट काट लिया जाता है इस आकार के लिए एक मानक शीट को रखकर चाकू चलाया जाता है । इस प्रक्रिया के बाद कागज की यह चादरें अन्य व्यक्ति के पास ले जाई जाती हैं जिसे वह दोनों हाथों में गोल मूरस्टाने ग्रेनाइट लेकर रगड़ता हैं। इसके उपरांत वह शीट को मोड़ कर बिक्री के लिए भेज देता है। ज्यादा बारीक कागज दुबारा पालिश किया जाता है। कटे हुए टुकड़ों और खराब हुई चादरों को पानी में रखकर कुचल दिया जाता है और फिर ऊपर वर्णित प्रक्रिया के मुताबिक पुननिर्मित किया जाता है।


निश्चित ही बिजली का आविष्कार भारत मे हुआ था

निश्चित ही बिजली का आविष्कार बेंजामिन फ्रेंक्लिन ने किया लेकिन बेंजामिन फ्रेंक्लिन अपनी एक किताब में लिखते हैं कि एक रात मैं संस्कृत का एक वाक्य पढ़ते-पढ़ते सो गया। उस रात मुझे स्वप्न में संस्कृत के उस वचन का अर्थ और रहस्य समझ में आया जिससे मुझे मदद मिली।
महर्षि अगस्त्य एक वैदिक ऋषि थे। महर्षि अगस्त्य राजा दशरथ के राजगुरु थे। इनकी गणना सप्तर्षियों में की जाती है। ऋषि अगस्त्य ने ‘अगस्त्य संहिता’ नामक ग्रंथ की रचना की। आश्चर्यजनक रूप से इस ग्रंथ में विद्युत उत्पादन से संबंधित सूत्र मिलते हैं-
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे
ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्‌।
छादयेच्छिखिग्रीवेन
चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्‌॥
-अगस्त्य संहिता
अर्थात : एक मिट्टी का पात्र लें, उसमें ताम्र पट्टिका (Copper Sheet) डालें तथा शिखिग्रीवा (Copper sulphate) डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (wet saw dust) लगाएं, ऊपर पारा (mercury) तथा दस्त लोष्ट (Zinc) डालें, फिर तारों को मिलाएंगे तो उससे मित्रावरुणशक्ति (Electricity) का उदय होगा। अगस्त्य संहिता में विद्युत का उपयोग इलेक्ट्रोप्लेटिंग (Electroplating) के लिए करने का भी विवरण मिलता है। उन्होंने बैटरी द्वारा तांबे या सोने या चांदी पर पॉलिश चढ़ाने की विधि निकाली अत: अगस्त्य को कुंभोद्भव (Battery Bone) कहते हैं।


ऐसा भी प्रधानमंत्री भारत मे हुआ था

अमेरिका से गेहूं आता था भारत के लिए PL 48 स्कीम के अंडर । । PL मतलब public law 48 । जैसे भारत मे सविधान मे धराए होती है ऐसे अमेरिका मे PL होता है । तो बिलकुल लाल रंग का सड़ा हुआ गेंहू अमेरिका से भारत मे आता था । और ये समझोता पंडित नेहरू ने किया था ।।
जिस गेंहू को अमेरिका मे जानवर भी नहीं खाते थे उसे भारत के लोगो के लिए आयात करवाया जाता था । आपके घर मे कोई बुजुर्ग हो आप उनसे पूछ सकते हैं कितना घटिया गेहूं होता था वो ।।
तो अमेरिका ने भारत को धमकी दी कि हम भारत को गेहूं देना बंद कर देंगे । तो शास्त्री जी ने कहा हाँ कर दो । फिर कुछ दिन बाद अमेरिका का ब्यान आया कि अगर भारत को हमने गेंहू देना बंद कर दिया । तो भारत के लोग भूखे मर जाएँगे ।।
शास्त्री जी ने कहा हम बिना गेंहू के भूखे मारे या बहुत अधिक खा के मरे । तुम्हें क्या तकलीफ है ।???
हमे भूखे मारना पसंद होगा बेशर्ते तुम्हारे देश का सड़ा हुआ गेंहू खाके ।। एक तो हम पैसे भी पूरे दे ऊपर से सड़ा हुआ गेहूं खाये । नहीं चाहीये तुम्हारा गेंहू ।।
फिर शास्त्री ने दिल्ली मे एक रामलीला मैदान मे लाखो लोगो से निवेदन किया कि एक तरफ पाकिस्तान से युद्ध चल रहा है । ऐसे हालातो मे देश को पैसे कि बहुत जरूरत पड़ती है । सब लोग अपने फालतू खर्चे बंद करे । ताकि वो domestic saving से देश के काम आए । या आप सीधे सेना के लिए दान दे । और हर व्यति सप्ताह से एक दिन सोमवार का वर्त जरूर रखे ।।
तो शास्त्री जी के कहने पर देश के लाखो लोगो ने सोमवार को व्रत रखना शुरू कर दिया । हुआ ये कि हमारे देश मे ही गेहु बढ्ने लगा । और शास्त्री जी भी खुद सोमवार का व्रत रखा रखते थे ।।
शास्त्री जी ने जो लोगो से कहा पहले उसका पालन खुद किया । उनके घर मे बाई आती थी ।। जो साफ सफाई और कपड़े धोती थी । तो शास्त्री जी उसको हटा दिया और बोला । देश हित के लिए मैं इतना खर्चा नहीं कर सकता । मैं खुद ही घर कि सारी सफाई करूंगा ।क्यूंकि पत्नी ललिता देवी बीमार रहा करती थी ।
और शास्त्री अपने कपड़े भी खुद धोते थे । उनके पास सिर्फ दो जोड़ी धोती कुरता ही थी ।।
उनके घर मे एक ट्यूटर भी आया करता था जो उनके बच्चो को अँग्रेजी पढ़ाया करता था । तो शास्त्री जी ने उसे भी हटा दिया । तो उसने शास्त्री जी ने कहा कि आपका अँग्रेजी मे फेल हो जाएगा । तब शास्त्री जी ने कहा होने दो । देश के हजारो बच्चे अँग्रेजी मे ही फेल होते है तो इसी भी होने दो । अगर अंग्रेज़ हिन्दी मे फेल हो सकते है तो भारतीय अँग्रेजी मे फेल हो सकते हैं । ये तो स्व्भविक है क्यूंकि अपनी भाषा ही नहीं है ये ।।
एक दिन शास्त्री जी पत्नी ने कहा कि आपकी धोती फट गई है । आप नहीं धोती ले आईये । शास्त्री जी ने कहा बेहतर होगा । कि सोई धागा लेकर तुम इसको सिल दो । मैं नई धोती लाने की कल्पना भी नहीं कर सकता । मैंने सब कुछ छोड़ दिया है पगार लेना भी बंद कर दिया है ।। और जितना हो सके कम से कम खर्चे मे घर का खर्च चलाओ ।।
अंत मे शास्त्री जी युद्ध के बाद समझोता करने ताशकंद गए । और फिर जिंदा कभी वापिस नहीं लौट पाये ।। पूरे देश को बताया गया की उनकी मृत्यु हो गई । जब कि उनकी ह्त्या कि गई थी ।।
भारत मे शास्त्री जी जैसा सिर्फ एक मात्र प्रधानमंत्री हुआ । जिसने अपना पूरा जीवन आम आदमी की तरह व्तीत किया । और पूरी ईमानदारी से देश के लिए अपना फर्ज अदा किया ।।
जिसने जय जवान और जय किसान का नारा दिया ।।
क्यूंकि उनका मानना था देश के लिए अनाज पैदा करने वाला किसान और सीमा कि रक्षा करने वाला जवान बहुत दोनों देश ले लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है ।।
स्वदेशी की राह पर उन्होने देश को आगे बढ़ाया । जब तक वे प्रधानमंत्री रहे एक भी विदेशी कंपनी को देश मे घुसने नहीं दिया । उनका कहना था एक ईस्ट इंडिया कंपनी के कारण भारत को 250 साल की गुलामी जेहलनी पड़ी थी । जिसके किए कितने क्रांतिकारियों ने फांसी खाई । दुबारा विदेशी कंपनियो को बुलाकर देश की आजादी के साथ कोई समझोता नहीं किया जा सकता ।
अमेरिका का सड़ा गेंहू भी बंद करवाया ।।
ऐसा प्रधानमंत्री भारत को शायद ही कभी मिले । अंत मे जब उनकी paas book चेक की गई तो सिर्फ 365 रुपए 35 पैसे थे उनके बैंक आकौंट मे । ।
शायद आज कल्पना भी नहीं कर सकते ऐसा नेता भारत मे हुआ ।।
आज प्र्धामंत्री अमेरिका ke agent है । लाखो करोड़ो के घोटाले करते है ।।
विदेशी कंपनियो को भगाना तो दूर ।। walmart ला रहे हैं ।।
लाखो करोड़ो के घोटाले कर रहे हैं ।।


आखिर भारत 1962 के युद्ध में चीन से क्यों हार गया ??

दुर्भाग्यपूर्ण वाली बात ये है कि VK krishan menon थे तो भारत के रक्षा मंत्री लेकिन हमेशा विदेश घूमते रहते थे । उनको हिदुस्तान रहना अच्छा ही नहीं लगता था आमेरिका अच्छा लगता था ।फ्रांस अच्छा लगता था ।ब्रिटेन अच्छा लगता था । नुयोर्क उनको हमेशा अच्छा लगता था । उनकी तो मजबूरी थी कि भारत मे पैदा हो गए थे । लेकिन हमेशा उनको विदेश रहना और वहाँ घूमना ही अच्छा लगता था । और जो काम उनको रक्षा मंत्री का सौंपा गया था उसको छोड़ वो बाकी सब काम करते थे । विदेश मे घूमते रहना ।कभी किसी देश कभी किसी देश मे जाकर कूट नीति ब्यान दे देना । । और ये किस तरह के अजीब किसम के आदमी थे ।आप इस बात से अंदाजा लगा सकते है । 1960 -61 मे एक बार संसद मे बहस हो रही थी तो वीके कृशन ने खड़े होकर अपनी तरफ से एक प्रस्ताव रखा ।
प्रस्ताव क्या रखा ??
उन्होने कहा देखो जी पाकिस्तान ने तो 1948 मे हमसे समझोता कर लिया कि वह आगे से कभी हम पर हमला नहीं करेगा । और दुनिया के आजू-बाजू मे और कोई हमारा दुश्मन है नहीं । तो हमे बार्डर पर सेना रखने कि क्या जरूरत है सेना हटा देनी चाहिए । ऐसे उल्टी बुद्धि के आदमी थे vk krishan menon । और ये बात वो कहीं साधारण सी बैठक मे नहीं लोकसभा मे खड़े होकर बोल रहे थे । कि ये सेना हमको हटा देनी चाहिए । इसकी जरूरत नहीं है ।।
तो कुछ सांसदो मे सवाल किया कि अगर भविष्य मे किसी देश ने हमला कर दिया तो कया करेंगे ???? अभी तो आप बोल रहे है कि सेना हटा लो । पर अमरजनसी जरूरत पड़ गई तो कया करेंगे ???
तो उन्होने ने कहा इसके लिए पुलिस काफी है । उसी से काम चला लेगे । ऐसा जवाब vk krishann manon ने दिया ।।
ऐसी ही एक बार कैबनेट कि मीटिंग थी प्रधान मंत्री और बाकी कुछ मंत्री माजूद थे । vk kirshan ने एक प्रस्ताव फिर लाया और कहा । देखो जी हमने सीमा से सेना तो हटा ली है । अगर सेना नहीं रखनी तो पैसे खर्च करने कि क्या जरूरत है । तो बजट मे से सेना का खर्च भी कम कर दिया ।
और तो और एक और मूर्खता वाला काम किया । उन्होने कहा अगर सेना ही नहीं है तो ये बंब,बंदुके
बनाने की क्या जरूरत है । तो गोला बारूद बनाने वाले कारखानो मे उत्पादन पर रोक लगा दी और वहाँ काफी बनाने के प्याले चाय बनाने के प्याले आदि का काम शुरू करवा दिया ।।
और उनको जो इस तरह के बयान आते थे तो चीन को लगा कि ये तो बहुत मूर्ख आदमी है । कहता है सेना को हटा लो । सेना का खर्चा कम कर दो । गोला बारूद बनाना बंद कर दो । और खुद दुनिया भर मे घूमता रहता है । कभी सेना के लोगो के पास न जाना । सेना के साथ को meeting न करना । इस तरह के काम करते रहते थे ।
तो चीन को मौका मिल गया । और चीन एक मौका ये भी मिल गया ।चीन को लगा की vk kirashan तो प्रधानमंत्री (नेहरू ) के आदमी है ।। तो शायद नेहरू की भी यही मान्यता होगी । क्यूंकि vk krishan नेहरू का खास दोस्त था तो नेहरू ने उसको रक्षा मंत्री बना दिया था । वरना vk krishan कोई बड़ा नेता नहीं था देशा का । जनता मे कोई उनका प्रभाव नहीं था । बस नेहरू की दोस्ती ने उनको रक्षा मंत्री बना दिया ।।
और वो हमेशा जो भाषण देते थे ।लंबा भाषण देते थे 3 घंटे 4 घंटे । लेकिन आप उनके भाषण का सिर पैर नहीं निकाल सकते थे कि उन्होने बोला क्या । ऐसे मूर्ख व्यक्ति थे vk krishan menon ।
तो ये सब मूर्खता देख कर चीन ने भारत पर हमला किया और भारत का एक इलाका था aksai chin ।
वहाँ चीन ने पूरी ताकत से हमला किया । और हालात क्या थे आप जानते है । सेना को वापिस बुला लिया था पहले ही ।। सेना का बजट कम था । गोला बारूद के कारखाने बंद थे ।। तो चीनी सैनिको ने बहुत मनमानी कि उस askai chin के क्षेत्र मे ।।
और जो सबसे बुरा काम किया । चीनी सैनिको ने सैंकड़ों महिलाओ के साथ जमकर बलत्कार किए ।। वहाँ हजारो युवको कि ह्त्या करी । askai chin का जो इलाका है वहाँ सुविधाए कुछ ऐसे है कि लोग वैसे ही अपना जीवन मुश्किल से जी पाते है । रोज का जीवन चलाना ही उनको लिए किसी युद्ध से कम नहीं होता ऊपर से चीन का हमला ।।
तो वहाँ के लोगो ने उस समय बहुत बहुत दुख झेला । और वहाँ हमारी सेना नहीं थी । तो वहाँ लोगो के मन हमारी सरकार के विरुद्ध एक विद्रोह की भावना उतपन हुई । और वो आज भी झलकती है । आज भी आप वहाँ जाये तो वहाँ लोग ये सवाल करते है कि जब चीन ने हमला किया था तो आपकी सेना कहाँ थी । और सच है हम लोगो के पास इसका कोई जवाब नहीं । तो उनमे एक अलगाव कि भावना उतपन हुई जो अलग क्षेत्र की मांग करने लगे ।।।
तो हमले मे चीन ने हमारी 72 हजार वर्ग मील जमीन पर कब्जा कर लिया । और हमारा तीर्थ स्थान कैलाश मानसरोवर भी चीन के कब्जे मे चला गया । और बहुत शर्म कि बात है आज हमे अपने तीर्थ स्थान पर जाने के लिए चीन से आज्ञा लेनी पड़ती है । और इसके जिम्मेदार सिर्फ और सिर्फ नेहरू और vk krishan menon जैसे घटिया और मूर्ख किसम के नेता थे ।।।

तो युद्ध के बाद एक बार संसद मे भारत-चीन युद्ध पर चर्चा हुई । सभी सांसदो के मुह से जो एक स्वर सुनाई दे रहा था । वो यही था ।कि किसी भी तरह चीन के पास गई 72 हजार वर्ग मील जमीन और हमारा तीर्थ स्थान कैलाश मानसरोवर वापिस आना चाहिए ।
महावीर त्यागी जी जो उस समय के बहुत महान नेता थे ।उन्होने ने सीधा नेहरू को कहा कि आप ही थे जिनहोने सेना हटाई । सेना का बजट कम किया । गोला बारूद बनाने के कारखाने बंद करवाये। आप ही के लोग विदेशो मे घूमा करते थे । और आपकी इन गलितयो ने चीन को मौका मिला और उसमे हमला किया और हमारी 72 हजार वर्ग मील जमीन पर कब्जा कर लिया ।।
अब आप ही बताए कि आप ये 72 हजार वर्ग मील जमीन को कब वापिस ला रहे है ?????।
तो इस हरामखोर नेहरू का जवाब सुनिए । नेहरू ने कहा फिर क्या हुआ अगर वो जमीन चली गई । चली गई तो चली गई । वैसे भी बंजर जमीन थी घास का टुकड़ा नहीं उगता था । ऐसी जमीन के लिए क्या चिंता करना ।।
तो त्यागी जी ने बहुत ही बढ़िया जवाब दिया । त्यागी जी ने कहा नेहरू जी उगता तो आपके सिर पर भी कुछ नहीं । तो इसको भी काट कर चीन को देदो । और इत्फ़ाक से नेहरू उस समय पूरी तरह गंजा हो चुका था ।। 😛
तो दोस्तो इस नेहरू ने धरती माँ को एक जमीन का टुकड़ा मान लिया । और अपनी गलती मानने के बजाय । उल्टा ब्यान दे रहा है जमीन चली गई तो चली गई ।
इससे ज्यादा घटिया बात कुछ और नहीं हो सकती । । और लानत है भारत की जनता पर आज चीन युद्ध के 50 साल बाद भी नेहरू परिवार के वंशज देश चला रहे हैं ।। हमे दिन रात लूट रहे हैं ।।


कैसे अंग्रेज़ो ने हमारे धार्मिक ग्रंथो, शास्त्रों से छेड़खानी की है?

मित्रो बहुत कम लोग जानते है की हमारी बहुत सी धार्मिक किताबें,शास्त्र और इतिहास के साथ अंग्रेज़ो ने बहुत छेड़खानी करी है । आपको सुन कर हैरानी होगी भारत मे एक मूल प्रति है मनुसमृति की जो हजारो वर्षो से आई है और एक मनुस्मृति अंग्रेज़ो ने लिखवाई है । और अंग्रेज़ो ने इसको लिखवाने मे मैक्स मुलर की मदद ली थी मैक्स मुलर एक जर्मन विद्वान था जिसको संस्कृति बहुत अच्छे से आती थी उसको कहा गया की तुम भारत के शास्त्रो को पढ़ो और पढ़ कर हमको बताओ की उनमे क्या है फिर जरूरत पढ़ने पर इसमे फेरबदल करेंगे ।
तब मैक्स मुलर ने मनुस्मृति का अनुवाद किया पहले जर्मन मे किया फिर अँग्रेजी मे किया तब अंग्रेज़ो को समझ आया की मनुस्मृति तो भारत की न्यायव्यवस्था की सबसे बड़ी पुस्तक है और भारत की न्याय व्यवस्था का आधार है । तो उन्होने मनुसमृति मे ऐसे विक्षेप डलवा दिये ताकि भारत वासियो को भ्रमाया जा सके और उनको गलत रास्ते पर चलाया जा सके । उनको मनुस्मृति के प्रति बहुत ज्यादा नीचाई की भावना पैदा हो इस तरह के विक्षेप डलवा दिये ।
ये विक्षेप केवल मनु स्मृति मे नहीं डाले गए बल्कि बहुत सारे अन्य ग्रंथो मे डाले गए और अंग्रेज़ो की बहुत बड़ी टीम थी जो इस कार्य मे लगी हुई थी कोई साधारण अंग्रेज़ो ने ये काम नहीं किया था। विलियम हंटर नाम का अंग्रेज़ हुआ करता था जिसने सबसे ज्यादा भारत के इतिहास मे विकृति डाली सबसे ज्यादा भारत के शास्त्रो के विकृत किया । जिसने सबसे ज्यादा भारत के पुराने ऋषि ,मुनियो के आत्म वचनो को बिलकुल उल्टा करके बताया ।
और ये सब वो कैसे कर पाया ? वो ये कि विलियम हंटर अंग्रेज़ो बहुत अच्छी जानता था और उसके साथ साथ उसको संस्कृत भी आती थी । क्योंकि भारतीय मूल ग्रंथ संस्कृत मे है तो वो उनको पढ़ लेता था और फिर अंग्रेजी मे कहाँ कहाँ उसको विकृति कर बनाना है वो कर लेता था । विलियम हंटर की पूरी टीम थी जो इस कार्य मे लगी थी जिसको कहा गया विलियम हंटर कमीशन ।
विलियम हंटर कमीशन की रिपोर्ट के बारे मे बात की जाए तो घंटो घंटो उसी मे निकल जाए हजारो पन्नो मे उन्होने ने रिपोर्ट बनाकर उन्होने ने ये बताया है कि हमने भारत के किस किस विष्य मे किस किस शस्त्र मे क्या क्या परिवर्तन कर दिये है ये उसने अँग्रेजी संसद को भेंट किया था और फिर उस पर बहस हुई थी तो अंग्रेज़ो ने अपने देश मे ऐसे बहुत सारे विद्वानो को तैयार करके भारत के शास्त्रो मे विक्षेपन करवाया बहुत कुछ ऐसी बातें भर दी उसमे जो की विश्वास करने लायक नहीं है तर्क पर कहीं ठहरती नहीं है और सूचना के आधार पर बिलकुल गलत हैं ।।

आर्य बाहर से आए उन्होने भारतीय संस्कृति को खत्म कर दिया हमारे पूर्वज गौ मांस खाते थे ।ना जाने ऐसी हजारो हजारों बातें और संस्कृत के शब्दो का गलत अर्थ निकाल कर हमारे शास्त्रो मे इन अंग्रेज़ो द्वारा भर दिया गया जो आज भी हमको जानबूझ कर पढ़ाया जा रहा है ताकि हम गुमराह होते रहे हम हिन्दू अपनी अपनी जातियो मे ऊंच -नीच करते । और हमारे मन हमारी ,संस्कृति ,सभ्यता के प्रति गलत भावना पैदा हो ।। तो मित्रो अंत आपसे निवेदन है को भी भारतीय ग्रंथ ,धार्मिक पुस्तक ,शास्त्र पढ़ें तो ध्यान रहे वो इन अंग्रेज़ो द्वारा छेड़खानी किया हुआ ना हो क्योंकि ज़्यादातर बाजार मे बिक रही किताबें वहीं है जिनमे अंग्रेज़ो ने छेड़खानी करी है ।।


वैलेंटाइन डे का वास्तविक इतिहास।

आपने एक शब्द सुना होगा “Live in Relationship” ये शब्द आज कल हमारे
देश में भी नव-अिभजात्य वर्ग में चल रहा है, इसका मतलब होता है कि “बिना शादी के पती-पत्नी की तरह से रहना” । तो उनके यहाँ, मतलब यूरोप और अमेरिका में ये परंपरा आज भी चलती है,
खुद प्लेटो (एक यूरोपीय दार्शनिक) का एक स्त्री से सम्बन्ध नहीं रहा, प्लेटो ने लिखा है कि “मेरा 20-22 स्त्रीयों से सम्बन्ध रहा है” अरस्तु भी यही कहता है, देकातेर् भी यही कहता है, और रूसो ने तो अपनी आत्मकथा में लिखा है कि “एक स्त्री के साथ रहना, ये तो कभी संभव ही नहीं हो सकता, It’s Highly Impossible” । तो वहां एक पत्नि जैसा कुछ होता नहीं ।
इन सभी महान दार्शनिकों का तो कहना है कि “स्त्री में तो आत्मा ही नहीं होती” “स्त्री तो मेज और कुर्सी के समान हैं, जब पुराने से मन भर गया तो पुराना हटा के नया ले आये ” । तो बीच-बीच में यूरोप में कुछ-कुछ ऐसे लोग निकले जिन्होंने इन बातों का विरोध किया और इन रहन-सहन की व्यवस्थाओं पर कड़ी टिप्पणी की ।
उन कुछ लोगों में से एक ऐसे ही यूरोपियन व्यक्ति थे जो आज से लगभग 1500 साल पहले पैदा हुए, उनका नाम था – वैलेंटाइन । और ये कहानी है 478 AD (after death) की, यानि ईशा की मृत्यु के बाद । उस वैलेंटाइन नाम के महापुरुष का कहना था कि “हम लोग (यूरोप के लोग) जो शारीरिक सम्बन्ध रखते हैं कुत्तों की तरह से, जानवरों की तरह से, ये अच्छा नहीं है, इससे सेक्स-जनित रोग (veneral disease) होते हैं, इनको सुधारो, एक पति-एक पत्नी के साथ रहो, विवाह कर के रहो, शारीरिक संबंधो को उसके बाद ही शुरू करो” ऐसी-ऐसी बातें वो करते थे और वो वैलेंटाइन महाशय उन सभी लोगों को ये सब सिखाते थे, बताते थे, जो उनके पास आते थे, रोज उनका भाषण यही चलता था रोम में घूम-घूम कर । संयोग से वो चर्च के पादरी हो गए तो चर्च में आने वाले हर व्यक्ति को यही बताते थे, तो लोग उनसे पूछते थे कि ये वायरस आप में कहाँ से घुस गया, ये तो हमारे यूरोप में कहीं नहीं है, तो वो कहते थे कि “आजकल मैं भारतीय सभ्यता और दशर्न का अध्ययन कर रहा हूँ, और मुझे लगता है कि वो परफेक्ट है, और इसिलए मैं चाहता हूँ कि आप लोग इसे मानो”, तो कुछ लोग उनकी बात को मानते थे, तो जो लोग उनकी बात को मानते थे, उनकी शादियाँ वो चर्च में कराते थे और एक-दो नहीं उन्होंने सैकड़ों शादियाँ करवाई थी । जिस समय वैलेंटाइन हुए, उस समय रोम का राजा था क्लौड़ीयस, क्लौड़ीयस ने कहा कि “ये जो आदमी है-वैलेंटाइन, ये हमारे यूरोप की परंपरा को बिगाड़ रहा है, हम बिना शादी के रहने वाले लोग हैं, मौज-मजे में डूबे रहने वाले लोग हैं, और ये शादियाँ करवाता फ़िर रहा है, ये तो अपसंस्कृति फैला रहा है, हमारी संस्कृति को नष्ट कर रहा है”, तो क्लौड़ीयस ने आदेश दिया कि “जाओ वैलेंटाइन को पकड़ के लाओ “, तो उसके सैनिक वैलेंटाइन को पकड़ के ले आये ।
क्लौड़ीयस ने वैलेंटाइन से कहा कि “ये तुम क्या गलत काम कर रहे हो ? तुम अधर्म र्फैला रहे हो, अपसंस्कृति ला रहे हो” तो वैलेंटाइन ने कहा कि “मुझे लगता है कि ये ठीक है” , क्लौड़ीयस ने उसकी एक बात न सुनी और उसने वैलेंटाइन को फाँसी की सजा दे दी, आरोप क्या था कि वो बच्चों की शादियाँ कराते थे, मतलब शादी करना जुर्म था । क्लौड़ीयस ने उन सभी बच्चों को बुलाया, जिनकी शादी वैलेंटाइन ने करवाई थी और उन सभी के सामने वैलेंटाइन को 14 फ़रवरी 498 ईःवी को फाँसी दे दिया गया । पता नहीं आप में से कितने लोगों को मालूम है कि पूरे यूरोप में 1950 ईःवी तक खुले मैदान में, सावर्जानिक तौर पर फाँसी देने की परंपरा थी । तो जिन बच्चों ने वैलेंटाइन के कहने पर शादी की थी वो बहुत दुखी हुए और उन सब ने उस वैलेंटाइन की दुखद याद में 14 फ़रवरी को वैलेंटाइन डे मनाना शुरू किया तो उस दिन से यूरोप में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है । मतलब ये हुआ कि वैलेंटाइन, जो कि यूरोप में शादियाँ करवाते फ़िरते थे, चूकी राजा ने उनको फाँसी की सजा दे दी, तो उनकी याद में वैलेंटाइन डे मनाया जाता है । ये था वैलेंटाइन डे का इतिहास और इसके पीछे का आधार । अब यही वैलेंटाइन डे भारत आ गया है जहाँ शादी होना एकदम सामान्य बात है यहाँ तो कोई बिना शादी के घूमता हो तो अद्भुत या अचरज लगे लेकिन यूरोप में शादी होना ही सबसे असामान्य बात है । अब ये वैलेंटाइन डे हमारे स्कूलों में कॉलजों में आ गया है और बड़े धूम-धाम से मनाया जा रहा है और हमारे यहाँ के लड़के-लड़िकयां बिना सोचे-समझे एक दुसरे को वैलेंटाइन डे का कार्ड दे रहे हैं । और जो कार्ड होता है उसमे लिखा होता है ” Would You Be My Valentine” जिसका मतलब होता है “क्या आप मुझसे शादी करेंगे” । मतलब तो किसी को मालूम होता नहीं है, वो समझते हैं कि जिससे हम प्यार करते हैं उन्हें ये कार्ड देना चाहिए तो वो इसी कार्ड को अपने मम्मी-पापा को भी दे देते हैं, दादा-दादी को भी दे देते हैं और एक दो नहीं दस-बीस लोगों को ये ही कार्ड वो दे देते हैं । मित्रो जब बिना सोचे समझे नकल की जाती है तो ये ही होता है । और इस धंधे में बड़ी-बड़ी कंपिनयाँ लग गयी हैं जिनको कार्ड बेचना है, जिनको गिफ्ट बेचना है, जिनको चाकलेट बेचनी हैं और टेलीविजन चैनल वालों ने इसका धुआधार प्रचार कर दिया । सब बातें छोड़िए मित्रो पिछले वर्ष online एक website ने मात्र वैलेंटाईन डे पर डेड लाख अधिक कंडोम की बिक्री की , सोचिए पूरे देश मे ये आंकड़ा क्या रहा होगा । वास्तव मे ये विदेशी त्योहार हमे किस और धकेल रहे है आप अनुमान लगा लीजिये ,ऐसे त्योहारों से भारत का भविष्य क्या होगा । ये सब लिखने के पीछे का उद्देँशय यही है कि नक़ल आप करें तो उसमे अकल भी लगा लिया करें । उनके यहाँ साधारणतया शादियाँ नहीं होती है और जो शादी करते हैं वो वैलेंटाइन डे मनाते हैं और लेकिन हम भारत में क्यों ??


भोपाल गैसकांड का एक अनकहा सत्य

4 दिसंबर 1984 की वो भयानक रात । भोपाल शहर मे अमरीकी कंपनी यूनियन कार्बाइड के कारखाने मे से ( मिथाइल आइसोनेट ) नामक गैस का रिसाव शुरू हुआ । और देखते ही देखते पूरा शहर लाशों के ढेर मे बदल गया । एक ही रात मे 15 हजार लोग क्या बच्चे क्या बूढ़े तड़प-तड़प कर मर गये । हवा का बहाव जिस और जाता गया तड़पती -चीखती -चिलाती आवाजों के साथ लाशों का ढेर लगता गया । पूरे देश को बता दिया गया भोपाल मे जो कुछ हुआ वो एक accident था । लेकिन वास्तव मे वो accident नहीं एक experiment था । एक परीक्षण था । दरअसल अमीर देशो की बहुत सी कंपनियाँ हथियार बनाती है अमेरिका जैसे देश की तो 85 % आमदनी हथियारों की बिक्री से होती है । जैसे ford कंपनी हमारे देश मे कारे बेचती है अपने देश अमेरिका मे हथियार बनाती है । general motors हमारे यहाँ कारें बेचती है अपने देश मे हथियार बनाती है ऐसे ही और अन्य कंपनिया अमेरिका मे हथियार बनाने का काम करती हैं । तो कुल मिलाकर हथियारों का व्यसाय चलना चाहिए ये उनकी हमेशा से जरूरत रहती है और आप जानते है हथियारो का व्यवसाय दो ही तरीक़ो से चल सकता है या तो दो देशो मे आपस मे युद्ध चल रहा हो । वहाँ हथियार बेचे जाएँ और या पूरी दुनिया मे कोई युद्ध चल रहा हो वहाँ हथियार बेचे जाए । और आप जानते है आजकल पूरी दुनिया मे एक अघोषित युद्ध चल रहा है जिसे आतंकवाद कहते है वो चाहे कश्मीर मे हो ,आसाम मे हो ,नागालैंड मे । या कहीं और वहाँ सब आतंकवादियो को हथियार बेचने का काम ऐसी ही कंपनियाँ करती हैंहथियार मुख्यता दो तरह के होते है एक तो बंदूक ,बम गोला बारूद आदि । लेकिन आज की दुनिया मे कुछ खतरनाक तरह के भी हथियार बनते है जिनको हम chemical weapons ( रासयानिक हथियार ) कहते हैं ये बम तोप के गोले से कुछ भिन्न तरह के होते है उनमे जहरीली गैसे भरी जाती है और जब बम फटता है तो ये गैसे वातावरण मे फ़ेल जाती है और जो लोग सूंघते है वो मरते है । और अमेरिका की ढेरों कंपनियाँ कैमिकल बम बनाती है । कैमिकल बम बनाने के लिए कुछ तरह की गैसे इस्तेमाल होती है जिनमे से एक का नाम है फासजीन और दूसरी है ( मिथाइल आइसोनेट ) और ऐसी दो तीन और गैसें है । और ये जो भोपाल के कारखाने से जो गैस निकली थी वो ( मिथाइल आइसोनेट ) थी । और इस ( मिथाइल आइसोनेट ) गैस का test करके देखना हो कि ये कितने लोगो को मार सकती है ये अमेरिका मे नहीं किया जा सकता क्योंकि वो मानते है की अमेरिका मे लोगो की ज़िंदगी की कीमत बहुत है और अमेरिका क्या अमेरिका जैसे किसी भी अमीर देश मे नहीं कार सकते क्योंकि उनके पर्यावरण के कानून बहुत मजबूत है । तो ऐसी जहरीली गैसों के प्रयोग के लिए अमेरिका जैसे देशो की कंपनियाँ हिन्दूस्थान जैसे देशों को तलाशती है और यही हुआ था भोपाल मे । मिथाइल आइसोनेट गैस निकली और 15 हजार लोग एक ही झटके मे मर गए । पिछले 30 साल मे 10 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए है । मौत का तांडव आज भी वहाँ पर चलता है लोगो के जीन मे उसका असर हो चुका । और इसी परीक्षण के बाद अमेरिका यूरोप की फोजों ने खाड़ी युद्ध मे ये रसायनिक हथियार ईराक पर गिराये । और उसके उनको बराबर परिणाम मिले । लेकिन ये बम गिराने से पहले के प्रयोग हिंदुस्तान ,कोलोम्बिया चिली ,जैसे गरीब देशो मे किए गये । जहां की सरकारे बिकाऊ होती है वहाँ ऐसे प्रयोग किए जाते हैं ।


पईथागोरस थ्योरी वास्तव में बोधायन महिर्षि की देन है ।

एक प्रमेय (Theorem) होती है जिसका हम नवमी-दसमी से लेकर बारह्वी कक्षा तक प्रयोग करते हैं, जिसे हम पईथागोरस थेओरम कहते हैं। पईथागोरस का जन्म हुआ ईसा से आठ शताब्दी पहले हुआ था और ईसा के पंद्रहवी शताब्दी पहले के भारत के गुरुकुलों के रिकार्ड्स बताते हैं कि वो प्रमेय हमारे यहाँ था, उसको हम बोधायन प्रमेय के रूप में पढ़ते थे। बोधायन एक महिर्षि हुए उनके नाम से भारत में ये प्रमेय ईशा के जन्म के पंद्रहवी शताब्दी पहले पढाई जाती थी यानि आज से लगभग साढ़े तीन हज़ार साल पहले भारत में वो प्रमेय पढाई जाती थी, बोधायन प्रमेय के नाम से और वो प्रमेय है – किसी आयत के विकर्ण द्वारा व्युत्पन्न क्षेत्रफल उसकी लम्बाई एवं चौड़ाई द्वारा पृथक-पृथक व्युत्पन्न क्षेत्र फलों के योग के बराबर होता है। तो ये प्रमेय महिर्षि बोधायन की देन है जिसे हम आज भी पढ़ते हैं और पईथागोरस ने बेईमानी करके उसे अपने नाम से प्रकाशित करवा लिया है और सारी दुनिया आजतक भ्रम में है ।
शुल्ब सूत्र या शुल्बसूत्र संस्कृत के सूत्रग्रन्थ हैं जो स्रौत कर्मों से सम्बन्धित हैं। इनमें यज्ञ-वेदी की रचना से सम्बन्धित ज्यामितीय ज्ञान दिया हुआ है। संस्कृत कें शुल्ब शब्द का अर्थ नापने की रस्सी या डोरी होता है। अपने नाम के अनुसार शुल्ब सूत्रों में यज्ञ-वेदियों को नापना, उनके लिए स्थान का चुनना तथा उनके निर्माण आदि विषयों का विस्तृत वर्णन है। ये भारतीय ज्यामिति के प्राचीनतम ग्रन्थ हैं। शुल्बसूत्र, स्रौत सूत्रों के भाग हैं ; स्रौतसूत्र, वेदों के उपांग (appendices) हैं। शुल्बसूत्र ही भारतीय गणित के सम्बन्ध में जानकारी देने वाले प्राचीनतम स्रोत हैं।
शुल्बसूत्रों में बौधायन का शुल्बसूत्र सबसे प्राचीन माना जाता है। इन शुल्बसूत्रों का रचना समय १२०० से ८०० ईसा पूर्व माना गया है। अपने एक सूत्र में बौधायन ने विकर्ण के वर्ग का नियम दिया है-
दीर्घचातुरास्रास्याक्ष्नाया रज्जुः पार्च्च्वमानी तिर्यङ्मानीच ।
यत्पद्ययग्भूते कुरुतस्तदुभयं करोति ।।

एक आयत का विकर्ण उतना ही क्षेत्र इकट्ठा बनाता है जितने कि उसकी लम्बाई और चौड़ाई अलग-अलग बनाती हैं। यहीं तो पाइथागोरस का प्रमेय है। स्पष्ट है कि इस प्रमेय की जानकारी भारतीय गणितज्ञों को पाइथागोरस के पहले से थी। दरअसल इस प्रमेय को बौधायन-पाइथागोरस प्रमेय कहा जाना चाहिए।


आर्य लोगो का वास्तविक इतिहास

सबसे बड़ी विकृति जो हमारे इतिहास मे अंग्रेजो ने डाली जो आजतक ज़हर बन कर हमारे खून मे घूम रही है, वो विकृति यह है के “ हम भारतवासी आर्य कहीं बहार से आयें।” सारी दुनिया मे शोध हो चुका है के आर्य नाम की कोई जाती भारत को छोड़ कर दुनिया मे कहीं नही थी; तो बाहार से कहाँ से आ गए हम ? फिर हम को कहा गया के हम सेंट्रल एशिया से आये मने मध्य एशिया से आये। मध्य एशिया मे जो जातियां इस समय निवास करती है उन सभि जातियों के DNA लिए गए, DNA आप समझते है जिसका परिक्षण करके कोई भी आनुवांशिक सुचना ली जा सकती है। तो दक्षिण एशिया मे मध्य एशिया मे और पूर्व एशिया मे तीनो स्थानों पर रहने वाली जातिओं के नागरिकों के रक्त इकठ्ठे करके उनका DNA परिक्षण किया गया और भारतवासियो का DNA परिक्षण किया गया। तो पता चला भारतवासियो का DNA दक्षिण एशिया, मध्य एशिया और पूर्व एशिया के किसी भी जाती समूह से नही मिलता है तो यह कैसे कहा जा सकता है की भारतवासी मध्य एशिया से आये, आर्य मध्य एशिया से आये ? इसका उल्टा तो मिलता है की भारतवासी मध्य एशिया मे गए, भारत से निकल कर दक्षिण एशिया मे गए, पूर्व एशिया मे गए और दुनियाभर की सभी स्थानों पर गए और भारतीय संस्कृति, भारतीय सभ्यता और भारतीय धर्म का उन्होंने पूरी ताकत से प्रचार प्रसार किया। तो भारतवासी दूसरी जगह पे जाके प्रचार प्रसार करते है इसका तो प्रमाण है लेकिन भारत मे कोई बाहार से आर्य नाम की जाती आई इसके प्रमाण अभीतक मिले नही और इसकी वैज्ञानिक पुष्टि भी नही हुई। इतना बड़ा झूठ अंग्रेज हमारे इतिहास मे लिख गए, और भला हो हमारे इतिहासकारों का उस झूठ को अंग्रेजों के जाने के 65 साल बाद भी हमें पड़ा रहे है। अभी थोड़े दिन पहले दुनिया के जेनेटिक विशेषज्ञ जो DNA RNA आदि की जांच करनेवाले विशेषज्ञ है इनकी एक भारी परिषद् हुई थी और वो परिषद् का जो अंतिम निर्णय है वो यह कहता है के “ आर्य भारत मे कहीं बहार से नही आये थे, आर्य सब भारतवासी हि थे जरुरत और समय आने पर वो भारत से बहार गए थे।” अब आर्य हमारे यहाँ कहा जाता है श्रेष्ठ व्यक्ति को, जो भी श्रेष्ठ है वो आर्य है, कोई ऐसा जाति समूह हमारे यहाँ आर्य नही है। हमारे यहाँ तो जो भी जातिओं मे श्रेष्ठ व्यक्ति है वो सब आर्य माने जाते है, वो कोई भी जाति के हो सकते है, ब्राह्मण हो सकते है, क्षत्रिय हो सकते है, शुद्र हो सकते है, वैश्य हो सकते है। किसी भी वर्ण को कोई भी आदमी अगर वो श्रेष्ठ आचरण करता है हमारे उहाँ उसको आर्य कहा जाता है, आर्य कोई जाती समूह नही है, वो सभि जाती समूह मे से श्रेष्ठ लोगों का प्रतिनिधित्व करनेवाला व्यक्ति है। ऊँचा चरित्र जिसका है, आचरण जिसका दूसरों के लिए उदाहरण के योग्य है, जिसका किया हुआ, बोला हुआ दुसरो के लिए अनुकरणीय है वो सभि आर्य है। हमारे देश मे परम श्रेधेय और परम पूज्यनीय स्वामी दयानन्द जैसे लोग, भगत सिंह, नेताजी सुभाष चन्द्र बोसे, उधम सिंह, चंद्रशेखर, अस्फाकउल्ला खान, तांतिया टोपे, झाँसी की रानी लक्ष्मी बाई, कितुर चिन्नम्मा यह जितने भी नाम आप लेंगे यह सभी आर्य है, यह सभि श्रेष्ठ है क्योंकि इन्होने अपने चरित्र से दूसरों के लिए उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। इसलिए आर्य कोई हमारे यहाँ जाती नहीं है। रजा जो उच्च चरित्र का है उसको आर्य नरेश बोला गया, नागरिक जो उच्च चरित्र के थे उनको आर्य नागरिक बोला गया, भगवान श्री राम को आर्य नरेश कहा जाता था, श्री कृष्ण को आर्य पुत्र कहा गया, अर्जुन को कई बार आर्यपुत्र का संबोधन दिया गया, युथिष्ठिर, नकुल, सहदेव को कई बार आर्यपुत्र का सम्बोधन दिया गया, या द्रौपदी को कई जगह आर्यपुत्री का सम्बोधन है। तो हमारे यहाँ तो आर्य कोई जाती समूह है हि नही, यह तो सभि जातियों मे श्रेष्ठ आचरण धारण करने वाले लोग, धर्म को धारण करने वाले लोग आर्य कहलाये है। तो अंग्रेजों ने यह गलत हमारे इतिहास मे डाल दिया।


भारत में चिकित्सा का इतिहास

यदि विज्ञान की दृष्टि से देखा जाए तो भारत विज्ञान के क्षेत्र में भी सबसे अग्रणी रहा है । स्वास्थ्य को सही रखने हेतु आचार्य चरक ने 'चरक संहिता' की रचना की है ।
उसमे आयुर्वेद से सभी बीमारियों का उपचार करने का विस्तार पूर्वक वर्णन किया गया है । रसोई में काम आने वाले मसालों (फारसी शब्द ) अर्थात औषधियों का उपयोग किस मात्रा में करने से कौन सा रोग दूर होता है सब बताया गया है । महर्षि वाग्भट्ट ने बताया कि जीवन शैली कैसे होनी चाहिए, कितनी मात्रा में जल लेना चाहिए, कैसे जल पीना चाहिए इत्यादि का विस्तार पूर्वक विवरण अष्टांगसंग्रह और अष्टांगहृदयसंहिता में दिया है । उदाहरनार्थ बताता हूँ महर्षि वाग्भट ने कहा था कि भोजन बनाते समय सूर्य का प्रकाश और पवन का स्पर्श आवश्यक है और हमारे गावों में भोजन ऐसे ही पकाया जाता है , जापानियों ने अरबों रुपये खर्च कर के बताया है कि खुले में भोजन बनाने से सम्पूर्ण पौष्टिक तत्व भोजन में आते है। ऐसे बहुत सी बातों का उल्लेख इसमें मिलता है । आयुर्वेद में सभी बिमारियों का पूर्णतया उपचार है अगर आज की चिकित्सा विज्ञान 'एलोपैथी' और 'आयुर्वेद' का तुलनात्मक अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि एलोपैथी में सिर्फ बीमारी से लड़ा जाता है पूर्णतया इलाज नही होता। चिकित्सा विज्ञान की सबसे मुश्किल शाखा शल्य चिकित्सा ( सर्जरी) होती है , वह भी विश्व को भारत की ही देन है । आचार्य सुश्रुत ने 'सुश्रुत संहिता ' में शल्य चिकित्सा की विधि का वर्णन विस्तारपूर्वक किया है ।
आचार्य सुश्रुत ने 125 उपकरणों का उल्लेख सुश्रुत संहिता में किया है जिनसे शल्य चिकित्सा की जाती थी और आज भी उन 125 उपकरणों का प्रयोग हो रहा है । शल्य चिकित्सा का एक और मुश्किल भाग है प्लास्टिक शल्य चिकित्सा वह भी भारत की देन है । एक उदाहरण से यह बात बताना चाहूँगा " 1770 ई० में एक राजा था हैदर अली, वह कर्नाटक का राजा था। अंग्रेजो ने कर्नाटक को अपने अंतर्गत मिलाने के लिए हैदर अली पर खूब आक्रमण किये परन्तु हर बार अंग्रेजों को मुहँ की खानी पड़ी । 1775 ई० में प्रो० कूट भारत में अधिकारी बनकर आया । उसने भी हैदर अली पर आक्रमण किया हैदर अली ने उसे पराजित कर उसकी नाक काट दी । वह कटी नाक लेकर वापस आ रहा था तो बेलगाम के एक वैद्य ने उसकी दशा पर दया कर के उसकी नाक प्लास्टिक सर्जरी से जोड़ दी । इस घटना का विवरण प्रो० कूट ने ब्रिटिश सभा में किया , तब ब्रिटिश दल भारत उस वैद्य के पास आया और पूछा के यह विद्या आपने कहाँ से सीखी तब उसने बताया कि “यह कार्य मैं क्या कोई भी वैद्य कर सकता है” । तब प्रो० कूट ने यह विद्या पूना में सीख कर इंग्लैंड में सीखाई । यह सब जानकरी प्रो० कूट ने अपनी डायरी में लिखी है । ऐसे ही टीकाकरण की शुरुआत भी भारत में ही हुयी । डॉ. ओलिव ने अपनी डायरी में लिखा है कि "जहाँ विश्व में लोग चेचक से मर रहे है वही यहाँ भारत में चेचक नगण्य के बराबर है और यहाँ इसके लिए टीकाकरण किया जाता है ।" यह घटना 1710 की कलकत्ता की है यह तो सिर्फ कुछ ही उदाहरण है जो ये बताते है कि भारत कितना समृद्ध था और यह ज्ञान भारत में लाखों वर्षों से चला आ रहा है ।


भारत में उन्नत किस्म का लोहा

भारत ने विश्व को लोहा (इस्पात या स्टील) बनाना सिखाया। 1795 में एक अंग्रेज अधिकारी ने सर्वेक्षण किया और अपनी यात्रा विवरण में लिखा है कि " भारत में इस्पात का काम कम से कम पिछले 1500 वर्षों से हो रहा है ।" उसके अनुसार " पश्चिमी , पूर्वी, दक्षिणी भारत में 15000 छोटे बड़े कारखाने चल रहे है और हर कारखाने मे रोजाना 500 कि०ग्रा० इस्पात बनाया जाता है । भारत में किसी भी कारखाने की भट्टी में लागत का खर्च 15 रुपये आता है। एक भट्टी से एक टन इस्पात बनाया जाता है और इस्पात बनाने का खर्च 80 रुपये आता है । इस इस्पात से बना सरिया यूरोप के बाजार में बिकता है और इस इस्पात की सबसे बड़ी विशेषता है कि उस पर कभी जंग नहीं लगता है ।" इस बात का सबसे बड़ा उदाहरण दिल्ली के महरोली में ध्रुव स्तम्भ है जो 1500वर्ष पूर्व (लगभग) बना था और आज तक उस पर जंग नहीं लगा है ।


भारत में गुरुकुलम्

भारत में कितना ज्ञान था और यह ज्ञान पूरे भारत में शिक्षण व्यवस्था से दिया जाता था । 1868 में ब्रिटेन में पहला विद्यालय एक कानून के तहत खुला था , उस समय भारत में लगभग 7 लाख 18 हजार 568 गुरुकुल चला करते थे
और उन गुरुकुलों में सिर्फ एक आचार्य होते थे और हर गुरुकुल में विद्यार्थियों की संख्या हजारों में हुआ करती थी । कक्षा नायक ही अपने साथी विद्यार्थियों को सिखाया करता था । यह शिक्षण व्यवस्था विश्व को भी भारत ने ही दी थी। प्रो० कूट ने अपनी डायरी में लिखा है कि जिस आचार्य से उसने प्लास्टिक सर्जरी सीखी थी तो सीखाने वाला आचार्य जाती से नाई था अर्थात स्पष्ट है कि जातिगत शिक्षण व्यवस्था भारत में नहीं थी । आज भी ब्रिटेन में भारत की कक्षा नायक वाली शिक्षण व्यवस्था चलती है । जिस समय ह्वेनसांग भारत आया था तब उसने अपने विवरण में लिखा है कि कलकत्ता में 20,000 विद्यार्थी अपनी शिक्षा पूर्ण कर अपने देश लौटने की तैयारी कर रहे है अर्थात भारत से ही समस्त ज्ञान विश्व में फैला है ।


भारत में विमान का अविष्कार

1895 में विश्व का सबसे पहला विमान मुंबई की चौपाटी पर शिवकर बापूजी तलपडे ने उड़ाया था । विमान शास्त्र ( महर्षि भारद्वाज द्वारा रचित) के अनुसार विमान बनाने के 500 सिद्धांत है और हर सिद्धांत से 32 अलग अलग तरह के विमान बनाये जा सकते है । 1895 में जो विमान उड़ा वह 1500 फीट उपर उड़ाया गया था और वह भी बिना चालक के उड़ाया गया था , उस विमान को सुरक्षित तरीके से उतारा भी गया था । इस विमान को उड़ते हुए राजकोट के राजा अशोक गायकवाड , मुंबई हाई कोर्ट के जज गोपाल रानाडे , और लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने देखा था । हमारी लापरवाही के कारण यह अविष्कार(1903) राईट बंधू के नाम दर्ज हुआ । उन्होंने जो विमान बनाया वह 120 फीट उपर उड़कर नीचे गिर गया था । बारूद का आविष्कार भी भारत में हुआ । भारत में बारूद का उपयोग 6वी शताब्दी में पटाखे बनाने के लिए किया जाता था । अंग्रेजों ने बारूद बनाना भारत में सीखा और उसका उपयोग हथियार बनाने के लिए किया । अध्यात्म के क्षेत्र में भारत का लोहा आज भी समग्र विश्व मानता है । आज भी यह स्पष्ट है कि अध्यात्म में हम से आगे कोई नहीं है । अतः यह स्पष्ट हो चूका है कि भारत ने विश्व को हर क्षेत्र बहुत कुछ दिया है और हर क्षेत्र में भारत का योगदान है । भारत इसीलिए विश्व गुरु कहलाने लायक था और भारत को विश्व गुरु कहा भी गया है । अब हमे यह मिथक पालने की कोई आवश्यकता नही कि भारत का विश्व के प्रति कोई योगदान नहीं है । जो यह मिथक पाले हुए है तो उसे सत्य से अवगत कराना हमारा कर्तव्य है । अति महत्वपूर्ण कार्य ये भी है कि जो भी अविष्कार भारत वासियों ने किये है उनको भारतवासियों के नाम पर दर्ज करवाना है जो अविष्कार किसी और के नाम से दर्ज है उन्हें सही करवाया जाए और सभी तथ्य सबके सामने लाये जाये । जो हमारे ग्रंथों को नष्ट किया गया या लूटा गया, उन्हें वापस लाया जाये या फिर उनमे तोड़ मोड़ के पुनः लिख दिया गया है तो उन्हें दुबारा असली ग्रंथों से सुधार किया जाए यह भी हमारा कर्तव्य है ताकि आने वाली पीढ़ी सत्य स्वीकारे और भारत को हीन दृष्टि से न देख कर गौरवपूर्ण दृष्टि से देखे ।